गहरी हुई खाई
चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों में मतभेद और मुद्दों को लेकर टकराव तो समझ में आते हैं।
गहरी हुई खाई |
मगर जो संवैधानिक संस्था पूरे चुनाव प्रक्रिया का संचालन करती हो, अगर उसके सदस्यों में मतभेद गहरे हो जाएं तो स्वाभाविक तौर पर मामले की गंभीरता को समझा जा सकता है। लोक सभा चुनाव के खत्म होने के पहले ही चुनाव आयोग में मतभेद सामने आ गए। यह किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता है। दरअसल, आयोग की विसनीयता ही उसकी कुल जमा-पूंजी है। अगर उसमें सेंध लगे या उंगली उठने लगे तो सर्वोच्च संस्थाओं को आगे आना पड़ेगा। तीन सदस्यीय चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त होते हैं। तीनों के अधिकार बराबर होते हैं। सो अंतिम फैसला बहुमत के आधार पर सामने आता है। ताजा विवाद के केंद्र में चुनाव आयुक्त अशोक लवासा हैं, जिन्होंने आयोग के आचार संहिता संबंधी कई फैसलों पर असहमति जताते हुए मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोड़ा को पत्र लिखकर आयोग के फैसलों में आयुक्तों के बीच मतभेद को भी आधिकारिक रिकॉर्ड में शामिल करने की मांग की है। हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त का साफ कहना है कि सदस्य ‘क्लोन’ नहीं हैं, जिनके फैसलों में एकरूपता होगी। एक तरह से देखा जाए तो अरोड़ा के तर्क में दम है।
स्वाभाविक तौर पर सदस्यों के निर्णय अलग-अलग होते हैं। और यह पहले भी होता रहा है। अतीत में भी चुनाव आयुक्तों के विचारों में काफी विविधता रही है। वैसे, तब यह विवाद या मतभेद सार्वजनिक नहीं होते थे। कहने का आशय है कि संस्था को अपने विवाद मिल-बैठकर निपटाने की समझदारी और संजीदगी दिखानी चाहिए। इससे न केवल संस्था की मर्यादा को चोट पहुंचती है, बल्कि सियासी दलों को भी आरोप लगाने और शंका जाहिर करने का मौका मिल जाता है। इस मामले में भी ऐसा हुआ। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने आयोग की विसनीयता को कठघरे में खड़ा कर दिया। यह कहीं से भी उचित नहीं है। दलों को यह समझ दिखानी चाहिए कि इतने बड़े चुनाव संचालन में उन्सीस-बीस हो जाती है। हां, बड़े पैमाने पर अगर अनियमितता बरती जाए तो सवाल भी उठाए जा सकते हैं और उस पर कार्रवाई भी बनती है। इस मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ है, सो हर किसी को सावधानीपूर्वक अपनी बात रखनी चाहिए।
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