आयोग का फैसला
चुनाव आयोग का पश्चिम बंगाल के संदर्भ में उठाया गया कदम अभूतपूर्व है। चुनाव प्रचार को 17 मई की बजाय 16 मई को ही समाप्त करने का फैसला करते हुए आयोग ने प्रदेश की हिंसा को कारण बताया है।
आयोग का फैसला |
इसके साथ उसने पश्चिम बंगाल के एडीजी, सीआईडी राजीव कुमार को तत्काल प्रभाव से केंद्रीय गृह मंत्रालय भेज दिया है और प्रधान सचिव, गृह अत्री भट्टाचार्य को उनके पद से हटाने का आदेश दिया है। उनका कार्यभार मुख्य सचिव को सौंपा गया है।
इतने बड़े अधिकारियों के खिलाफ उठाया गया कदम भी असामान्य है और यह बताता है कि प्रदेश की स्थिति कितनी भयावह है। आयोग का यह कदम निश्चय ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो पर हुए हमला से प्रभावित है, लेकिन इसके पीछे तणमूल कांग्रेस द्वारा छह चरणों के चुनाव में लगातार की गई हिंसा को भी अलग नहीं किया जा सकता। यदि सत्तासीन तृणमूल कांग्रेस हिंसारहित चुनाव आयोजित होने देती तो अंतिम चरण में चुनाव आयोग को इतना कठोर कदम नहीं उठाना पड़ता।
तृणमूल की हिंसा के कारण ही पहले आयोग को चुनाव शत-प्रतिशत केंद्रीय बलों की सुरक्षा में कराने का निर्णय लेना पड़ा। इस तरह कहा जा सकता है कि आयोग लगातार कोशिशों के बावजूद तृणमूल की हिंसा को रोकने में सफल नहीं हुआ है, इसलिए उसे इस सीमा तक जाना पड़ा। बावजूद इसके यह समझ से परे है कि चुनाव आयोग ने प्रचार पर रोक क्यों लगाई? संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत उसे कई अधिकार हैं, जिसके तहत निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए वह कदम उठा सकता है। किंतु चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि निर्धारित समय तक सभी पार्टयिां और उम्मीदवार अपना प्रचार कर सकें।
यह उसके दायित्व में आता है। जब उसने भारी संख्या में केंद्रीय बलों को वहां उतारा है तो इनकी तैनाती और बढ़ाकर चुनाव प्रचार को सुरक्षा देना चाहिए था। यही यथेष्ठ था। वैसे ही पश्चिम बंगाल में केवल नौ क्षेत्रों का चुनाव शेष है तो प्रचार भी इन्हीं क्षेत्रों तक सीमित होता। एक बार किया गया फैसला भविष्य के ऐसे फैसले का आधार बन जाता है। आगे जब किसी राज्य या क्षेत्र में विपरीत स्थिति उत्पन्न होगी चुनाव आयोग इस तरह प्रचार को प्रतिबंधित कर सकता है। उपद्रवी तत्व चुनाव प्रचार रोकने का आधार बनाने के लिए भी हिंसा कर सकते हैं। इसलिए हम तृणमूल की हिंसा की जितनी निंदा करते हैं, उतनी ही आयोग के इस कदम से असहमति भी जताते हैं।
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