बंगाल में हिंसा

Last Updated 16 May 2019 03:24:03 AM IST

कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में निकले रोड शो के दौरान हुई हिंसा यकीनन चिंताजनक है।


बंगाल में हिंसा

हालांकि इसमें दोनों पक्ष एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। रोड शो निकालने वाली पार्टी अपनी ओर से हिंसा नहीं कर सकती। जो कुछ सामने आया है, उसके अनुसार कॉलेज स्ट्रीट पहुंचने पर कुछ लोग काला झंडा हाथों में लिए गो बैक नारे लगा रहे हैं। इसी बीच एक डंडा अमित शाह की गाड़ी पर फेंका जाता है। फिर पत्थर फेंका जाता है और आगजनी भी हो जाती है।

जाहिर है, कुछ उपद्रवी तत्वों ने ही ऐसा किया होगा। जब इतना विशाल जुलूस हो तो ऐसी घटना के बाद उसको संभालना कठिन होता है। इसलिए इधर के लोगों ने भी गुस्से में जवाबी हमला किया। उसके बाद पुलिस लाठीचार्ज हुआ। अमित शाह कह रहे हैं कि केंद्रीय बल नहीं होते तो उनकी जान नहीं बचती। अगर निशाना उनकी गाड़ी थी तो कुछ भी हो सकता था।

सही तरीके से जांच हो तो घटना का पूरा सच समाने आ सकता है। किंतु ऐसा होगा नहीं। पश्चिम बंगाल की जो स्थिति हो गई है, उसमें पुलिस से निष्पक्ष जांच और कार्रवाई की उम्मीद करना व्यर्थ है। वास्तव में कोलकाता रोड शो में हिंसा तो पश्चिम बंगाल की भयावह राजनीतिक स्थिति का एक डरावना नमूना है। ऐसा लगता है कि हिंसा वहां की राजनीतिक संस्कृति हो गई है। छह चरणों के संपन्न चुनाव में हर बार हिंसा हुई है। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने दूसरी पार्टी के समर्थकों पर हमले किए हैं। उम्मीदवार तक हमले के शिकार हुए हैं।

चुनाव आयोग को हारकर पूरा चुनाव केंद्रीय बलों की सुरक्षा में कराने का कदम उठाना पड़ा। हालांकि यह पांचवें चरण में ही लागू हो सका। कोलकाता रोड शो में हिंसा नहीं भी होती तब भी यह साफ था कि पश्चिम बंगाल चुनाव आयोग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। वहां आम मतदाताओं के लिए निर्भीक होकर मतदान करना कठिन रहा है। भारत के अन्य किसी राज्य में इस तरह की स्थिति नहीं है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है। चुनाव को एक सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया माना जाना चाहिए। जिसे जनता चाहेगी उसे जिताएगी। वस्तुत: पश्चिम बंगाल की हिंसक राजनीतिक संस्कृति ही वहां चुनाव के दौरान रौद्र रूप में सामने आ रहा है। यह सभी पार्टयिों के लिए विचार कर विषय होना चाहिए। सुरक्षा बलों की भूमिका इसमें सीमित ही है। वे हिंसा के विरु द्ध कार्रवाई कर सकते हैं, पर हिंसा की राजनीतिक संस्कृति का अंत तो राजनीतिक दलों द्वारा ही संभव है।



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