अहमदाबाद विमान दुर्घटना के बाद परिवारों ने सच मानने से किया इनकार, मनोचिकित्सकों को करनी पड़ी मशक्कत
अहमदाबाद में हुए विनाशकारी विमान हादसे के बाद चारों ओर ग़म और अविश्वास का माहौल था। मृतकों के परिवार किसी जवाब, उम्मीद या शायद सिर्फ सांत्वना की तलाश में सिविल अस्पताल पहुंचे थे।
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इस दौरान कई दृश्य देखने को मिले। एक पति अपनी पत्नी को खोने के बाद अपराध बोध से ग्रस्त दिखा; एक पिता गुस्से में यह स्वीकार करने से इनकार कर रहा था कि उसका बेटा इस दुनिया से चला गया है; और कई लोग भावनात्मक रूप से टूटे हुए दिखे।
इस दौरान मनोचिकित्सक चुपचाप उनकी बात सुनते हुए सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे।
अहमदाबाद में 12 जून को हुए विनाशकारी विमान हादसे ने शहर के लोगों को झकझोर कर रख दिया। कई लोगों के लिए, यह एक ऐसा अनुभव था जो उनकी कल्पना से कहीं अधिक कष्टदायक था।
अफरातफरी के बीच, यहां बी जे मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग ने तुरंत कार्रवाई शुरू कर दी थी।
पांच सीनियर रेजिटेंड और पांच परामर्शदाताओं की मनोचिकित्सक टीम को अस्पताल के कसौटी भवन, पोस्टमॉर्टम बिल्डिंग और सिविल अधीक्षक कार्यालय में चौबीस घंटे तैनात किया गया।
उनका काम त्रासदी के बाद मानसिक आघात का सामना कर रहे परिवारों को सहारा देना है। अब तक 259 पीड़ितों की पहचान की जा चुकी है, जिनमें भारत के 199 और ब्रिटेन, पुर्तगाल व कनाडा के 60 नागरिक शामिल हैं। 256 यात्रियों के शव उनके परिवारों को सौंप दिए गए हैं।
बीजेएमसी की डीन और मनोचिकित्सा प्रमुख डॉ. मीनाक्षी पारीख ने कहा, “दुर्घटना अकल्पनीय थी। यहां तक कि आसपास खड़े लोग भी परेशान थे। फिर किसी ऐसे व्यक्ति की क्या हालत होगी जिसने अपने प्रियजन को खो दिया हो?”
उन्होंने कहा, “अगर खबर सुनने वाले लोग इतने परेशान थे, तो हम उन लोगों के परिवार के सदस्यों की मनःस्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते जिन्होंने अपनी जान गंवाई है।”
दुर्घटना की भयावह तस्वीरें प्रसारित होने के साथ ही स्तब्ध, हताश, और उम्मीद लगाए हुए परिवार के लोग वहां पहुंच गए।
उन्होंने कहा कि एक अकेले जीवित बचे व्यक्ति का जिक्र सुनकर दिल की धड़कनें तेज हो गईं। कई लोगों ने बताया कि उन्हें लगा कि जिंदा बचा व्यक्ति उनका प्रियजन हो सकता है।
डॉक्टर पारीख ने कहा, “इस बात को लेकर अनिश्चितता थी कि क्या कोई अपने खोए प्रियजनों की पहचान कर पाएगा और डीएनए नमूनों के मिलान के लिए तीन दिन तक प्रतीक्षा कर सकेगा। कुछ मामलों में, मृतक के किसी अन्य रिश्तेदार के नमूने लेने पड़े।”
डॉ. उर्विका पारीख ने घटना को याद करते हुए कहा, “लोग सच्चाई को मानने से पूरी तरह इनकार कर रहे थे।”
उन्होंने कहा, “वे लगातार ताजा जानकारी मांगते रहे, इस बात पर जोर देते रहे कि उनके परिवार का सदस्य बच जाना चाहिए। उन्हें जानकारी देना अविश्वसनीय रूप से कठिन था। हमें किसी भी चीज से पहले मनोवैज्ञानिक प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करनी थी।”
डॉ. पारेख ने कहा कि कई रिश्तेदारों की उम्मीदें एक अकेले जीवित बचे व्यक्ति की खबर पर टिकी हुई थीं, जिसके बारे में उन्हें लगता था कि वह उनका प्रियजन हो सकता है।
उन्होंने कहा, “हमें सच्चाई को मानने से लोगों के इनकार से निपटना पड़ा।”
उन्होंने कहा कि रिश्तेदार शुरू में काउंसलिंग नहीं चाहते थे क्योंकि वे जानकारी के अभाव से हताश और नाराज थे।
उन्होंने कहा, “अपने प्रियजनों के शवों को देखे बिना सच्चाई को स्वीकार करना भी मुश्किल था। काउंसलिंग ने इस महत्वपूर्ण मोड़ पर उनकी मदद की।”
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