CJI ने कहा- न्यायिक सक्रियता को नहीं बनना चाहिए न्यायिक अतिवाद

Last Updated 21 Aug 2025 02:16:20 PM IST

भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी आर गवई (Bhushan Ramkrishna Gavai) ने बृहस्पतिवार को राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई के दौरान कहा कि न्यायिक सक्रियता एक सीमा तक ही होनी चाहिए और उसे न्यायिक अतिवाद (ज्यूडिशियल टैरेरिज्म) नहीं बनना चाहिए।


भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी आर गवई

न्यायालय राष्ट्रपति के उस संदर्भ पर सुनवाई कर रहा है जिसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने यह जानने का प्रयास किया था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति एवं राज्यपालों द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं।

सीजेआई ने यह टिप्पणी उस समय की, जब केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि निर्वाचित लोगों के पास काफी अनुभव होता है और उन्हें कभी भी कम नहीं आंकना चाहिए।

इस पर सीजेआई ने मेहता से कहा, ‘‘हमने निर्वाचित लोगों के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। मैंने हमेशा कहा है कि न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशल एक्टिविज्म) कभी न्यायिक अतिवाद (ज्यूडिशियल टैरेरिज्म) नहीं बननी चाहिए।’’

पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं।

मेहता ने राज्यपाल की शक्तियों पर शीर्ष अदालत के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए अपनी दलीलें फिर से शुरू कीं। इस मामले की सुनवाई लगातार तीसरे दिन जारी है।

सुनवाई शुरू होने पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि वह राष्ट्रपति के संदर्भ पर वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल की दलील का इंतजार कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास सार्वजनिक जीवन का व्यापक अनुभव है और वह शासन में भी रहे हैं तथा सांसद भी रहे हैं।

मेहता ने कहा, ‘‘आजकल, चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, चुने हुए लोगों को मतदाताओं को सीधे जवाब देना पड़ता है। लोग अब उनसे सीधे सवाल पूछते हैं। 20-25 साल पहले हालात अलग थे लेकिन अब मतदाता जागरूक हैं और उन्हें बरगलाया नहीं जा सकता।’’

उन्होंने कहा कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को ‘‘स्वीकृति देने पर निर्णय रोक कर रखना’’ संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक पदाधिकारी का एक स्वतंत्र और पूर्ण कार्य है।

उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को टिप्पणी की थी कि कोई भी विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा दोबारा पारित करके राज्यपाल को भेजे जाने की स्थिति में वह उसे विचार के लिए राष्ट्रपति को नहीं भेज सकते हैं।

शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति के संदर्भ की विचारण योग्य होने पर तमिलनाडु और केरल सरकारों द्वारा उठाई गई प्रारंभिक आपत्तियों का जवाब देते हुए कहा कि इस मामले में वह केवल सलाह देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल कर रही है न कि अपीलीय अदालत के तौर पर काम कर रही है।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानने का प्रयास किया था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं।

केंद्र ने अपनी लिखित दलील में कहा है कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए निश्चित समय-सीमा निर्धारित करना, सरकार के एक अंग द्वारा ऐसा अधिकार अपने हाथ में लेना होगा, जो संविधान ने उसे प्रदान नहीं किया है और इससे ‘‘संवैधानिक अव्यवस्था’’ पैदा हो सकती है।

उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों पर आठ अप्रैल को दिए फैसले में पहली बार यह प्रावधान किया था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचारार्थ रखे गए विधेयकों पर संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।

पांच पृष्ठों के परामर्श में राष्ट्रपति मुर्मू ने उच्चतम न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय जानने की कोशिश की।

भाषा
नयी दिल्ली


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