आत्मीयता
मनुष्य जीवन में सब से मधुर यदि कोई वस्तु है, तो वह है-स्नेह, सद्भाव, आत्मीयता। एक दूसरे के प्रति जहां इस प्रकार की भावना रखी जाती है, वहां स्वर्ग का साक्षात्कार होता है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
कहना न होगा कि घोर गरीबी और अभावग्रस्त स्थिति में होने पर भी मनुष्य इन तत्त्वों के होने पर भारी संतोष और शांति का अनुभव करता है। इस तत्त्व को सुरक्षित रखने के लिए ही आध्यात्मिकता, धार्मिकता एवं आस्तिकता का सारा विधान बना हुआ है। दूसरों के प्रति स्नेह-सद्भाव एवं आत्मीयता बनी रहे एवं बढ़ती रहे, इसके लिए यह परम आवश्यक है कि मनुष्य दूसरों के शरीर में भी अपनी ही आत्मा को देखे। उनके सुख-दु:ख को भी अपना ही सुख-दु:ख माने।
जिस प्रकार अपने बाल-बच्चे एवं परिजन अपने लगते हैं, वैसे ही और लोग भी अपने लगने लगें, तो उनसे सहज ही स्नेह उत्पन्न होगा। जिसके प्रति सच्चा स्नेह होता है, उसके साथ कुछ नेकी-भलाई-उदारता का परिचय देने की इच्छा स्वभावत: ही होती है। नवजात शिशु के पेट में कोई गड़बड़ी उत्पन्न हो जाए, इस भय से माता अपनी जिव्हा इन्द्रिय पर पूरा काबू रखकर अपना आहार चलाती है।
अपने स्वाद की उपेक्षा करके वह बालक के स्वार्थ का ही ध्यान रखती है। यही मातृ बुद्धि जब सारे समाज के प्रति होने लगती है, तो मनुष्य स्वभावत: संयमी और संतोषी हो जाता है। माता अपने भोजन, वस्त्र, सुविधा तथा साधनों में कमी करके भी जिस प्रकार अपने प्यारे बालकों के लिए खुशी-खुशी अधिकाधिक साधन-सामग्री जुटाती है, और उस प्रयत्न में उसे जो त्याग करना पड़ता है, अभाव भोगना पड़ता है, उससे खिन्न होना तो दूर-उलटे अधिक प्रसन्नता अनुभव करती है।
यह त्याग का, दान का, परमार्थ का, पुण्य का, उदारता का, सेवा का सिद्धान्त है। आत्मभाव के विस्तार से ही संयम, त्याग, स्नेह तथा सेवा-भावना की वृद्धि होती है। मानव मात्र एक दूसरे के प्रति प्यार करे, एक दूसरे के साथ सद्भाव एवं सहृदयता का व्यवहार करे, न्यायोचित मार्ग से जितनी साधन-सामग्री जुट सके, उसी में संतोष करे, और अन्य लोगों की भावनाओं का ख्याल रखे तो उसके लिए इस संसार में मानसिक उलझनों जैसी कोई समस्या शेष नहीं रह जाती। यदि मन प्रसन्न रहे, उद्वेगों से छुटकारा प्राप्त किया जा सके, तो जीवनयापन बहुत ही सरल, सुविधाजनक एवं शान्तिपूर्ण हो सकता है।
Tweet |