आत्मज्ञान
जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे अधिक आवश्यक रूप से जानने योग्य वस्तु है आत्मा।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
आत्मज्ञान ही वह अमूल्य निधि है, जिसे पाकर जीवन सार्थक हो जाता है। व्यक्ति धन्य हो जाता है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही है आत्मज्ञान की प्राप्ति। परन्तु आज सर्वथा इसके विपरीत हो रहा है। ध्यान उस तथ्य की ओर आकषिर्त किया जा रहा है जिसको सर्वथा भुला दिया जाना चाहिए या उपेक्षित कर देना चाहिए। क्षणिक विषय वासनाओं का सुख, लोभ, मोह, लालच को उपेक्षित किया जाना चाहिए, पर इसके उल्ट आत्मसत्ता को उपेक्षित किया जा रहा है।
समझा यह जा रहा है कि मनुष्य जो कुछ है, वह शरीर और मन तक ही सीमित है। इससे आगे, इससे ऊपर भी कुछ है, इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। वैसे तो अक्सर सुना जाता है कि हमारे शरीर और मन से ऊपर आत्मा है। सत्संग और स्वाध्याय आदि अवसरों पर आये दिन आंखों और कानों के पदरे पर यह शब्द टकराते रहते हैं। पर वह सब एक ऐसी विडम्बना बनकर रह जाता है, जो मानो कहने-सुनने और पढ़ने-लिखने के लिए ही खड़ी की गई हो, वास्तविकता से जिसका कोई सीधा संबंध न हो। यदि ऐसा न होता तो आत्मा को सचमुच ही महत्त्वपूर्ण माना गया होता।
कम से कम शरीर, मन जितने स्तर का भी समझ गया होता तो उसके लिए उतना श्रम एवं चिन्तन नियोजित तो किया ही गया होता जितना कायिक, मानसिक उपलब्धियों के लिए किया जाता है। यथार्थता यह है कि आत्मा के संबंध में बढ़-चढ़कर बातें कहने-सुनने में प्रवीण होने पर भी उस संबंध में एक प्रकार से अपरिचित ही बने हुए हैं। यदि ऐसा न होता तो दिनचर्या में आत्मिक उन्नति के लिए कुछ स्थान नियत रहा होता। श्रम और मनोयोग में उसके लिए भी जगह होती।
उपलब्धियों तथा धन को जिन प्रयोजनों में खर्च किया जाता है, उनमें एक मद आत्मविकास के लिए भी रखी गई होती। पर देखा जाता है कि इस संबंध में सर्वत्र घोर उपेक्षा ही संव्याप्त है। जिस प्रकार शरीर और मन को महत्त्व दिया जाता है, उसी प्रकार आत्मा पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। तभी आत्मज्ञान, आत्मानुभूति की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। मनुष्य को जीवन रूपी सुर दुर्लभ अवसर इसीलिए प्राप्त हुआ है कि मनुष्य शरीर तक सीमित न रहे, बल्कि आत्मा की ओर भी बढ़े और उसका ज्ञान प्राप्त करे।
Tweet |