प्रेम पाप नहीं है
प्रेम यदि पाप है तो फिर संसार में पुण्य कुछ होगा ही नहीं। प्रेम पाप है तो पुण्य असंभव है। क्योंकि पुण्य का सार प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
आचार्य रजनीश ओशो |
अगर प्रेम पाप है, तो प्रार्थना भी पाप हो जाएगी। क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही परिशुद्ध रूप है। माना कि प्रेम में कुछ अशुद्धियां हैं, लेकिन पाप नहीं है। सोना अशुद्ध हो तो भी सोना है। अशुद्ध होकर भी सोना सोना है। रही शुद्ध करने की बात, सो शुद्ध कर लेंगे। कूड़े-करकट को जला देंगे, सोने को आग से गुजार लेंगे; जो व्यर्थ है, असार है, जल जाएगा आग में; जो सार है, जो शुद्ध है, बच जाएगा। प्रेम और प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना अशुद्ध सोने और शुद्ध सोने में।
मगर दोनों ही सोना हैं, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं। इस पर मेरा बल है। यही आने वाले भविष्य के मनुष्य के धर्म की मूल भित्ति है। अतीत ने प्रार्थना और प्रेम को अलग-अलग तोड़ दिया था और उसका दुष्परिणाम हुआ। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि प्रेम दूषित हो गया, निंदित हो गया। एक तरफ प्रेम को अपराध बना दिया हमने; तो जो प्रेम में थे, उनकी आत्मा का अपमान किया। और इस जगत में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं है कि किसी व्यक्ति के भीतर आत्मनिंदा पैदा हो जाए। तो प्रेम के कारण हमने पापी पैदा कर दिया दुनिया में।
प्रेम पाप है, तो जो भी प्रेम करते हैं, सब पापी हैं। और कौन है जो प्रेम नहीं करता? कोई पत्नी को करता है, कोई पति को, कोई बेटे को, कोई भाई को, कोई मित्र को। शिष्य भी तो गुरु को प्रेम करते हैं! गुरु भी तो शिष्यों को प्रेम करता है! यहां जितने संबंध हैं, वे सारे संबंध ही किसी-न-किसी अर्थ में प्रेम के संबंध हैं। संबंध मात्र प्रेम के हैं। तो हमने सभी को पापी कर दिया। सारा संसार हमने पाप से भर दिया, एक छोटी सी भूल करके कि प्रेम पाप है।
और दूसरा दुष्परिणाम हुआ कि जब प्रेम पाप हो गया, तो प्रार्थना हमारी थोथी हो गई। प्राण तो प्रेम से मिल सकते थे, तो प्रेम को तो हमने पाप कह दिया। जीवन तो प्रेम से मिलता प्रार्थना को, तो जीवन के तो हमने द्वार बंद कर दिए। प्रेम की ही भूमि से प्रार्थना रस पाती है, तो हमने भूमि को तो निंदित कर दिया और प्रार्थना के वृक्ष को भूमि से अलग कर लिया। प्रेम जब प्रार्थना बनता है तो परमात्मा के द्वार खुलते हैं। प्रेम पाप नहीं है। और किसी बुद्धपुरु ष ने प्रेम को पाप नहीं कहा है।
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