त्याग

Last Updated 28 Feb 2022 01:37:58 AM IST

त्याग में कितनी मिठास है, इसे बेचारे स्वार्थी और कंजूस भला क्या समझेंगे?


श्रीराम शर्मा आचार्य

जो इसके अमर मिठास का आस्वादन करना चाहते हैं, उनकी नीति होनी चाहिए ‘आप लीजिए-मुझे नहीं चाहिए।’ यही नीति है जिसके आधार पर सुख-शांति का होना संभव है। ‘मैं लूंगा आपको न दूंगा की नीति अपनाकर कैकेयी ने अयोध्या को नरक बना दिया था। सारी नगरी विलाप कर रही थी। दशरथ ने तो प्राण ही दे दिए। राजभवन मरघट की तरह शोकपूर्ण हो गया। राम जैसे निर्दोष तपस्वी को वनवास ग्रहण करना पड़ा। किंतु जब ‘आप लीजिए-मुझे नहीं चाहिए’ की नीति व्यवहार में आई तो दूसरे ही दृश्य हो गए। राम ने राज्याधिकार को त्यागते हुए भरत से कहा-‘बंधु! तुम्हें राज्य सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए।’ सीता ने कहा-‘नाथ! यह राजभवन मुझे नहीं चाहिए।

मैं तो आपके साथ रहूंगी।’ सुमित्रा ने लक्ष्मण से कहा-‘अवध तुम्हार काम कछु नाहीं। जो पै राम सिय बन जाहीं।।-पुत्र! जहां राम रहें, वहीं अयोध्या मानते हुए उनके साथ रहो।’ कैसा स्वर्गीय प्रसंग है। भरत ने तो इस नीति को और भी सुंदर ढंग से चरितार्थ किया। राज-पाट में लात मारी और भाई के चरणों से लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे। बोले-‘भाई! मुझे नहीं चाहिए। इसे तो आप ही लीजिए। ‘राम कहते हैं-‘भरत! मेरे लिए तो वनवास ही अच्छा है। राज्य सुख तुम भोगो।’ त्याग के इस सुनहरी प्रसंग में स्वर्ग छिपा है। कुछ परिजनों ने त्रेता को सतयुग में परिवर्तित कर दिया। अवध सतयुगी रंग में रंग गया। वहां के सुख सौभाग्य का वर्णन करते-करते वाल्मीकी और तुलसीदास अघाते नहीं हैं।

प्रभु ने मनुष्य को इसलिए इस पृथ्वी पर नहीं भेजा है कि एक दूसरे को लूट खाएं और आपस में रक्त की होली खेलें। परम पिता की इच्छा है कि लोग प्रेमपूर्वक भाई-भाई की तरह मिल-जुल कर रहें। यह तभी हो सकता है जब त्याग की नीति को प्रधानता दी जाए। आप किसी को कुछ दें या उसका किसी प्रकार का उपकार करें तो बदले में कोई आशा न रखें। जो कुछ देंगे, हजार गुना होकर लौट आवेगा परंतु उसके लौटने की तिथि नहीं गिननी चाहिए। ध्यान से  देखिए, सारा विश्व आपको कुछ दे रहा है। जितने आनंदादायक पदार्थ आपके पास हैं, वे सब आपके बनाए हुए नहीं हैं वरन दूसरों के द्वारा आपको प्राप्त होते हैं। फिर आप दूसरों को देने में इतना संकोच क्यों करते हैं?



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