आत्मविस्तार

Last Updated 14 Feb 2022 02:31:27 AM IST

लोग क्या कहते हैं’ इस आधार पर दु:खी होने की आदत डालेंगे तो सदैव दु:ख भोगना पड़ेगा।


श्रीराम शर्मा आचार्य

इससे कौन रोक सकता है कि हम सबको अपना समझें, प्यार करें और उस प्यार एवं अपनेपन के कारण जो आनंद उपजे उसका उपयोग करें। अपने प्रेम भाव के कारण बहुत अंशों में दूसरों का व्यवहार नरम, मधुर, सुखकर हो जाता है। कदाचित किसी ऐसे जड़ से पाला पड़े जो उलटा ही उलटा चलता हो तो उसकी गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखिए। आप तो अपने कर्त्तव्य में प्रसन्न रहिए। संसार में अनेक दुष्टात्मा भरे पड़े हैं, उनके होने से आपको कुछ शोक-संताप नहीं होता।

फिर क्या कारण है कि अमुक व्यक्ति के दोषों का दंड आप अपने को दें। दूसरों के बुरे विचार-कार्यों से अपने को प्रभावित न होने दें। सहनशीलता और समझौते की नीति से काम लीजिए। बदला या कर्ज चाहने की इच्छा छोड़कर विशुद्ध प्रेम का, आत्मभाव का प्रसार कीजिए। इससे आप अपने लिए एक स्वर्ग की रचना आसानी से कर सकेंगे। आध्यात्मिक साधना में ‘अहंभाव का विस्तार करना’-तत्व रूप में विद्यमान है।

आत्मोन्नति यही तो है कि अपनेपन के दायरे को बड़ा बनाया जाए। जिनका अपनापन अपने शरीर तक ही है वे कीट-पतंग से नीची श्रेणी के हैं, जो अपनी संतान तक आत्मभाव को बढ़ाते हैं, पशु-पक्षी उनसे कुछ ऊंचे हैं, जिनका अहंकार अपनी संस्था, राष्ट्र तक है वे मनुष्य हैं, जो मानव जाति को अपनेपन से ओत-प्रोत देखते हैं, वे देवता हैं, जिनकी आत्मीयता चर-अचर तक विस्तृत है वे जीवन मुक्त परम सिद्ध हैं। जीव अणु है, छोटा है, सीमित है। ईश्वर महान है, विभु है, व्यापक है।

जब जीव ईश्वर में तद्रूप होने के लिए बढ़ता है, तो वह भी महानता, विभुता, व्यापकता के गुणों में समन्वित होने लगता है। जिन पर भूत चढ़ता है, उनके वचन और आचरण भूत जैसे हो जाते हैं। ईश्वरीय कृपा की किरण जिन महात्माओं पर पड़ती है, उनकी स्पष्ट पहचान ‘आत्मभाव का विस्तार’ है। जिसका स्वार्थ जितने कम लोगों तक सीमित है, वह ईश्वर से उतना ही दूर है। जो आत्मभाव का जितना विस्तार करता है, अधिक लोगों को अपना समझता है, दूसरों की सेवा-सहायता करना कर्त्तव्य समझता है, और उनके सुख-दु:ख में अपना सुख-दु :ख मानता है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है। आत्मविस्तार और ईश्वर आराधना एक ही क्रिया के दो नाम हैं।



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