आत्मभाव
आप चाहते हैं कि हमारे चारों ओर प्रिय ही प्रिय तत्त्व जमा रहें तो इसका एक ही उपाय है कि आत्मभाव को उन सबसे संबंधित कर दें।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
सोए हुए निष्क्रिय तत्त्वों के रहते हुए भी अंधकार बना रहता है पर जैसे ही बिजली की धारा उन बल्बों तक पहुंची, वैसे ही वे क्षण भर में दीप्तमान हो उठते हैं और अपने प्रकाश से निकटवर्ती स्थानों को जगमगा देते हैं।
स्वर्ग की बड़ी महिमा गाई गई है, कथा-पुराणों में उसका बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है, उस सारे वर्णन का सार यह है कि यहां सब प्रिय ही वस्तुएं हैं, जैसे स्थानों में रहना चाहते हैं, वे सब वहां मौजूद हैं। ऐसा स्वर्ग आप स्वयं बना सकते हैं, इसी जीवन में उसका आनंद लूट सकते हैं, दूर जाने की जरूरत नहीं, जिस स्थान पर रह रहे हैं, वहीं उसकी रचना हो सकती है, क्या आप सचमुच ऐसा चाहते हैं? अपने आत्मभाव को संकुचित मत रखिए वरन उसे निकटवर्ती लोगों के ऊपर बिना भेद-भाव के बिखेर दीजिए।
धारा का स्पर्श करते ही अचेतन पड़े हुए बल्ब जगमगाने हैं, आपके आत्मभाव का स्पर्श होते ही समस्त संबंधित जन प्रेम पात्र बन जाएंगे, प्रिय लगने लगेंगे, उन प्रियजनों के बीच रहकर आप स्वर्ग जैसा आनंद अनुभव करेंगे। अपनों के लिए स्वभावत: उनके दोषों को छिपाने और गुणों को प्रकट करने की वृत्ति रहती है, अपने प्यारे पुत्र के दोषों को कौन पिता प्रकट करता है? वह तो उसकी प्रशंसा के ही पुल बांधता रहता है।
दुर्गुणी बालक को कोई न तो मार डालता है और न ही जेल पहुंचा देता है वरन सारी शक्तियों के साथ प्रयत्न किया जाता है कि किसी सरल उपाय से उसके दुर्गुण दूर हो जाएं या कम हो जाएं। यदि ऐसी ही वृत्ति अपने परिजनों के साथ रखें तो उनके अंदर जो बुरे तत्त्व विद्यमान हैं, वे घट जाएंगे, कम-से-कम आपके लिए वे निस्तेज हो ही जाएंगे। डाकू, हत्यारे, ठग, व्यभिचारी आदि भी अपनी स्री, पुत्र, भाई, बहिन आदि के साथ अपने स्वभावों का उपयोग नहीं करते, सिंह अपने बाल-बच्चों को नहीं फाड़ खाता, इसी प्रकार जिनके प्रति आप आत्मभाव रखते हैं, वे भी कम से कम आपके लिए तो दुखदायी न रहेंगे। महात्मा इमरसन कहा करते थे, ‘यदि मुझे नरक में रखा जाए तो मैं अपने सुणों के कारण वहां भी स्वर्ग बना लूंगा। आपमें विवेक हो तो वे कुटुंबी, जिनके साथ आपका दिन-रात कलह होता है, भी आसानी से प्रेम पात्र बन सकते हैं।’
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