जीवन व्यर्थ है

Last Updated 28 Dec 2021 12:05:46 AM IST

भगवान, जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? जीवन तो कोरा कागज है; जो लिखोगे वही पढ़ोगे।


आचार्य रजनीश ओशो

गालियां लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो। और गालियां भी उसी वर्णमाला से बनती हैं, जिससे गीत बनते हैं; वर्णमाला तो निरपेक्ष है, निष्पक्ष है। जिस कागज पर लिखते हो वह भी निरपेक्ष, निष्पक्ष। जिस कलम से लिखते हो, वह भी निरपेक्ष, वह भी निष्पक्ष। सब दांव तुम्हारे हाथ में है। तुमने इस ढंग से जीया होगा, इसलिए व्यर्थ मालूम होता है। तुम्हारे जीने में भूल है। और जीवन को गाली मत देना। लोग कहते हैं, जीवन व्यर्थ है।

यह नहीं कहते कि हमारे जीने का ढंग व्यर्थ है! और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत, महात्मा भी तुमको यही समझाते हैं-जीवन व्यर्थ है। मैं तुमसे कुछ और कहना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं: जीवन न तो सार्थक है, न व्यर्थ; जीवन तो निष्पक्ष है; जीवन तो कोरा आकाश है। उठाओ तूलिका, भरो रंग। चाहो तो इंद्रधनुष बनाओ और चाहो तो कीचड़ मचा दो। कुशलता चाहिए। अगर जीवन व्यर्थ है तो उसका अर्थ यह है कि तुमने जीवन को जीने की कला नहीं सीखी; उसका अर्थ है कि तुम यह मान कर चले थे कि कोई जीवन में रेडीमेड अर्थ होगा। जीवन कोई रेडीमेड कपड़े नहीं है कि गए और तैयार कपड़े मिल गए। जिंदगी से कपड़े बनाने पड़ते हैं। फिर जो बनाओगे वही पहनना पड़ेगा, वही ओढ़ना पड़ेगा। और कोई दूसरा तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी नहीं कर सकता।

जिंदगी के मामले में तो अपने कपड़े खुद ही बनाने होते हैं। जीवन व्यर्थ है, ऐसा मत कहो। ऐसा कहो कि मेरे जीने के ढंग में क्या कहीं कोई भूल थी? क्या कहीं कोई भूल है कि मेरा जीवन व्यर्थ हुआ जा रहा है? बुद्ध का जीवन तो व्यर्थ नहीं। जीसस का जीवन तो व्यर्थ नहीं। मोहम्मद का जीवन तो व्यर्थ नहीं। कैसा अर्थ खिला! कैसे फूल! कैसी सुवास उड़ी! कैसे गीत जगे! कैसी मृदंग बजी! लेकिन कुछ लोग हैं कि जिनके जीवन में सिर्फ  दुर्गध है।

और मजा ऐसा है कि जो तुम्हारे जीवन में दुर्गध बन रही है वही सुगंध बन सकती है-जरा सी कला, जीने की कला! मैं धर्म को जीने की कला कहता हूं। धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है। धर्म का मंदिर और मस्जिद से कुछ लेना-देना नहीं है। धर्म तो है जीवन की कला। जीवन को ऐसे जीया जा सकता है कि तुम्हारे जीवन में हजार पंखुरियों वाला कमल खिले, कि तुम्हारे जीवन में समाधि लगे, कि तुम्हारे जीवन में भी ऐसे गीत उठें जैसे कोयल के, कि तुम्हारे भीतर भी हृदय में ऐसी-ऐसी भाव-भंगिमाएं जगें तो उपनिषद बनते हैं।



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment