उपासना व साधना

Last Updated 08 Feb 2021 12:08:19 AM IST

साधना का दूसरा-पक्ष उत्तरार्ध, उपासना है। विविध शारीरिक और मानसिक क्रियाकृत्य इसी प्रयोजन के लिए पूरे किए जाते हैं।


श्रीराम शर्मा आचार्य

शरीर से व्रत, मौन, अस्वाद, ब्रह्मचर्य, तीर्थयात्रा, परिक्रमा, आसन, प्राणायाम, जप, कीर्तन, पाठ, बन्ध, मुद्राएं, नेति, धौति, बस्ति, नौलि, बज्रोली, कपालभाति जैसे क्रियाकृत्य किए जाते हैं। मानसिक साधनाओं में प्राय: सभी चिन्तनपरक होती हैं और उनमें कितने ही स्तर के ध्यान करने पड़ते हैं। नादयोग, बिंदुयोग, लययोग, ऋजुयोग, प्राणयोग, हंसयोग, षटचक्र वेधन, कुंडलिनी जागरण जैसे बिना किसी श्रम या उपकरण के किए जाने वाले, मात्र मनोयोग के सहारे संपन्न किए जाने वाले सभी कृत्य ध्यान योग की श्रेणी में गिने जाते हैं। स्थूल शरीर से श्रमपरक, सूक्ष्म शरीर से चिन्तनपरक उपासनाएं की जाती हैं। कारण शरीर तक केवल भावना की पहुंच है। निष्ठा, आस्था, श्रद्धा का भाव भरा समन्वय ‘भक्ति’ कहलाता है।

प्रेम-संवेदना इसी को कहते हैं। यह स्थिति तर्क से ऊपर है। मन और बुद्धि का इसमें अधिक उपयोग नहीं हो सकता है। भावनाओं की उमंग भरी लहरें ही अन्त:करण के मर्मस्थल का स्पर्श कर पाती हैं। मनुष्य के अस्तित्व को तीन हिस्सों में बांटा गया है  सूक्ष्म, स्थूल और कारण। यह तीन शरीर माने गए हैं। दृश्य सत्ता के रूप में हाड़-मांस का बना सबको दिखाई पड़ने वाला चलता-फिरता, खात-सोता, स्थूल शरीर है। क्रिया शीलता इसका प्रधान गुण है। इसके नीचे वह सत्ता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसका कार्य समझ और केंद्र मस्तिष्क है। शरीर विज्ञान में अनाटॉमी, फिजियालॉजी दो विभाजन हैं। मन:शास्त्र को साइकोलॉजी और पैरा-साइकोलॉजी इन दो भागों में बांटा गया है।

मन के भी दो भाग हैं-एक सचेतन, जो सोचने-विचारने के काम आता है और दूसरा अचेतन, जो स्वभाव एवं आदतों का केंद्र है। रक्त संचार, स्वांस-प्रस्वांस, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष जैसी स्वसंचालित रहने वाली क्रियाएं इस अचेतन मन की प्रेरणा से ही संभव होती हैं। तीसरा कारण शरीर-भावनाओं का, मान्यताओं एवं आकांक्षाओं का केंद्र है, इसे अन्त:करण कहते हैं। इन्हीं में ‘स्व’ बनता है। जीवात्मा की मूल सत्ता का सीधा संबंध इसी  ‘स्व’ से है। यह  ‘स्व’  जिस स्तर का होता है, उसी के अनुसार विचारतंत्र और क्रियातंत्र काम करने लगते हैं।



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