सुख-शांति
प्रत्येक मनुष्य की आकांक्षा रहती है कि सुख-शांति और संपन्नता से जीवन व्यतीत करे। सुख-शांति और संपन्नता परस्पर निर्भर हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
सुख-शांति और संपन्नता तभी अर्जित की जा सकती है जब जीवन प्रवाह निद्र्वद्व और निर्विघ्न हो। जीवन प्रवाह की यह स्निग्ध गति ही मनुष्य और समाज को सुखी और शांत रख सकती है। इसी आधार पर ही संपन्नता का भी लाभ उठाया जा सकता है। अन्यथा संपन्न होने पर और भी खतरे खड़े हो जाते हैं, जिससे सुख-चैन मिटने लगता है। जैसे समाज में चोर-डाकुओं का बोलबाला हो, तो सबसे पहले संपन्न व्यक्तियों को ही चिंता उत्पन्न होगी। इस तरह के विघ्न केवल बाहरी कारणों से ही नहीं आते। आंतरिक जीवन में भी अशांति और उद्वेग उत्पन्न होते रहते हैं, और सब प्रकार से संपन्न होते हुए भी व्यक्ति एक-एक क्षण सुख-चैन के ल्एि कलपता-तड़पता रहता है।
यदि इस तरह के उद्वेग साधनहीन व्यक्ति के जीवन में उठते तो संपन्नता अर्जित करने का अवकाश ही नहीं मिलेगा। बाह्य दृष्टि से ऐसे व्यक्ति के पास भले ही कोई कार्य न हो पर आंतरिक दृष्टि से उसके मन:क्षेत्र में उद्वेगों, चिंताओं और यातनाओं का संघर्ष चलता ही रहेगा। परिस्थिति या संयोग से ऐसे व्यक्तियों को संपन्नता प्राप्त हो भी जाए तो उनका कोई उपयोग संभव नहीं हो सकेगा। जिस वस्तु या परिस्थिति का कोई उपयोग न हो, जिससे लाभ उठाने का अवसर न मिलता हो, उसका होना न होना समान है। बाहरी और आंतरिक उद्वेग प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने से उठता है, जिससे कई तरह के विघ्न पैदा होते हैं। समाज, ग्रह-उपग्रह, नक्षत्र, तारे आदि नियम-मर्यादा के अनुसार चलते हैं। अपने निश्चित विधान का जरा भी व्यतिक्रम नहीं करते।
उस विधान का उल्लंघन करें तो क्षण भर में ही नष्ट हो जाएं। यह प्रकृति की क्रूरता नहीं, उसकी व्यवस्था और उदारता है, क्योंकि एक ग्रह नक्षत्र भी अपना मार्ग छोड़ दे, तो अन्य अपने मार्ग से भटक जाएंगे। इससे उसका नुकसान तो होगा ही और दूसरों में भी गड़बड़ी फैलेगी। प्रकृति ने अपने परिवार के समस्त सदस्यों को इस व्यवस्था, मर्यादा में बांध रखा है कि वे अपना मार्ग न छोड़ें। इसलिए सारी व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है। सृष्टि की कोई भी इकाई अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती। केवल मनुष्य ही ऐसा है, जो बार-बार नियति के विरुद्ध जाने की धृष्टता करता है।
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