सच्चिदानंद

Last Updated 04 Jan 2021 02:17:25 AM IST

भगवान के यों अगणित नाम हैं, उनमें से एक नाम है-सच्चिदानंद। सत का अर्थ है-टिकाऊ अर्थात न बदलने वाला-न समाप्त होने वाला।


श्रीराम शर्मा आचार्य

इस कसौटी पर केवल परब्रह्म ही खरा उतरता है। उसका नियम, अनुशासन, विधान एवं प्रयास सुस्थिर है। सृष्टि के मूल में वही है। परिवर्तनों का सूत्र-संचालक भी वही है। इसलिए परब्रह्म को सत् कहा गया है। चित का अर्थ है-चेतना, विचारणा। जानकारी, मान्यता, भावना आदि इसी के अनेकानेक स्वरूप हैं। मानवी अंत:करण में उसे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के रूप में देखा जाता है। बुद्धिमान और मूर्ख सभी में अपने विभिन्न स्तरों के अनुरूप वह विद्यमान रहती है। प्राणियों की चेतना बृहत्तर चेतना का एक अंग-अवयव मात्र है। इस ब्रह्माण्ड में अनंत चेतना का भण्डार भरा पड़ा है। उसी के द्वारा पदाथरे को व्यवस्था का एवं प्राणियों को चेतना का अनुदान मिलता है। परम चेतना को ही परब्रह्म कहते हैं।

अपनी योजना के अनुरूप वह सभी को दौड़ने एवं सोचने की क्षमता प्रदान करती है। इसलिए उसे ‘चित’ अर्थात चेतन कहते हैं। इस संसार का सबसे बड़ा आकषर्ण ‘आनंद’ है। आनंद जिसमें जिसे प्रतीत होता है वह उसी ओर दौड़ता है। शरीरगत इंद्रियां अपने-अपने लालच दिखाकर मनुष्य को सोचने और करने की प्रेरणा देती हैं। सुविधा-साधन शरीर को सुख प्रदान करते हैं। मानसिक ललक-लिप्सा, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए ललचाती रहती हैं। अंत:करण की उत्कृष्टता वाला पक्ष आत्मा कहलाता है। वस्तुत: आनंद प्रकारान्तर से प्रेम का दूसरा नाम है।

जिस भी वस्तु, व्यक्ति एवं प्रकृति से प्रेम हो जाता है, वही प्रिय लगने लगती है। प्रेम घटते ही उपेक्षा चल पड़ती है और यदि उसका प्रतिपक्ष-द्वेष उभर पड़े, तो फिर वस्तु या व्यक्ति के रूपवान, गुणवान होने पर भी वे बुरे लगने लगते हैं। अंधेरे में जितने स्थान पर टॉर्च की रोशनी पड़ती है, उतना ही प्रकाशवान होता है। प्रेम को ऐसा ही टॉर्च-प्रकाश कहना चाहिए, जिसे जहां भी फेंका जाएगा, वहीं सुंदर, प्रिय एवं सुखद लगने लगेगा। वैसे इस संसार में कोई भी पदार्थ या प्राणी अपने मूल रूप में प्रिय या अप्रिय है नहीं। हमारा दृष्टिकोण, मूल्यांकन एवं रु झान ही आनंददायक अथवा अप्रिय, कुरूप बनाता चलता है और दृष्टिकोण के अनुसार ही अनुभूति होते चली जाती है।



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