राजनीतिक रुख
एक सक्रिय लोकतंत्र का मतलब है कि आप कभी किसी तरह की विचारधारा को न अपनाएं।
जग्गी वासुदेव |
अमेरिका में यह बहुत सशक्त तरीके से हुआ। वह दो अलग-अलग धर्मो की तरह बन गया आप डेमोक्रेट हैं या रिपब्लिकन। यह इस तरह बन गया: ‘मेरे दादा रिपब्लिकन थे, मेरे पिता रिपब्लिकन थे इसलिए मैं भी रिपब्लिकन हूं। एक बार ऐसा हुआ..डेमोक्रेट एक रेड स्टेट में प्रचार कर रहे थे जो हमेशा रिपब्लिकन को वोट देते हैं। एक डेमोक्रेट ने किसी से पूछा, ‘आप डेमोक्रेट को क्यों नहीं वोट देते?’ उस आदमी ने जवाब दिया, ‘मेरे दादा रिपब्लिकन थे, मेरे पिता रिपब्लिकन थे इसलिए मैं भी रिपब्लिकन हूं।’ डेमोक्रेट चिढ़कर बोला, ‘मान लो तुम्हारे दादा मूर्ख थे और तुम्हारे पिता मूर्ख थे, तो तुम क्या हो?’ उस आदमी ने जवाब दिया, ‘तो फिर मैं डेमोक्रेट होता। आपने उनका सिंबल देखा है?
तो, एक जीवित लोकतंत्र में आपको कभी कोई विचारधारा नहीं अपनानी चाहिए। यह बात हम लोग भूल चुके हैं। हमारा देश भी उसी दिशा में बढ़ रहा है: ‘आप यहां के हैं या वहां के?’ मैंने अगले चुनाव के लिए अभी मन नहीं बनाया है। पहले देखते हैं कि कौन कैसा प्रदर्शन करता है, कौन अधिक समझदारी दिखाता है। मैं राइट, लेफ्ट, सेंटर हूं? जैसे ही आप यह रु ख अपनाते हैं, आप लोकतंत्र को नष्ट कर रहे हैं और उसे वापस सामंतवाद की ओर ले जा रहे हैं: ‘हम इस ट्राइब (कबीले) के हैं, इसलिए हम हमेशा इसी को वोट देंगे!’ फिर कोई लोकतंत्र नहीं बचेगा।
एक लोकतंत्र का मतलब है कि हर बार आप मूल्यांकन करते हैं कि आप कौन सा रु ख लेना चाहते हैं। और वह कोई स्थायी रु ख नहीं होगा। फिलहाल, अमेरिका में मेरे ख्याल से सिर्फ चार से पांच फीसद लोग यह तय करते हैं कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। बाकी लोगों का मत तय होता है। भारत में प्रतिशत शायद दस से बारह फीसद या ज्यादा से ज्यादा पंद्रह फीसद हो सकता है, मगर मेरे ख्याल से आने वाले चुनाव के बाद हमारे प्रतिशत भी अमेरिका की तरह हो जाएंगे क्योंकि अब स्थिति बहुत विकृत होती जा रही है। आपको या तो इधर रहना है या उधर। आप यह नहीं कह सकते कि आप कहीं नहीं हैं! एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया की असाधारण उपलब्धि यही है कि बिना किसी रक्तपात (खून खराबे) के सत्ता बदल जाती है।
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