सेवा धर्म

Last Updated 10 Dec 2020 01:58:44 AM IST

दान सेवा एक ऐसा कार्य है जो लगता तो सामान्य, छोटा और कुछ लोगों की दृष्टि से ओछा भी, पर वस्तुत: वह सही मायने में व्यक्तियों के व्यक्तित्व को सुगढ़ बनाने, परिमार्जित करने और तप तितिक्षा के लिए तैयार करने में आधार का काम करता है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

सन्त विनोबा, गांधी जी, मदर टेरेसा आदि पुण्यात्माएं  सेवा कार्य को आजीवन करती रहीं। वे समझते थे सेवा की महत्ता को। सेवा कार्य आत्मा की आवश्यकता का पोषण है। उसको निरंतर और निर्बाध गति से करते रहना इसलिए आवश्यक है कि हम जीवित रहें, हमारी आत्मा और उसकी सुरुचि जीवित रहें। किसी पर एहसान करने के लिए, दूसरों के सहायक और उपकारी बनने के लिए, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भी नहीं, यश के लिए भी नहीं। सेवा का प्रयोजन आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण रखने और उसके जीवन साधन जुटाए रखने के लिए है। इसलिए इसे करते रहना चाहिए।

ऐसा सोचना उचित नहीं कि मैंने इतना तो कर लिया, क्या अब सदा ही करता रहूंगा? जो सेवा की आवश्यकता और महत्ता को समझता है, उसे उससे कभी भी ऊब नहीं आती। जो ऊबता हो समझना चाहिए, अभी उसे सेवा का रस नहीं आया। जब एक बार उस परम धर्म का रसास्वादन कर लिया जाता है तो उसे छोड़ सकना संभव नहीं होता। फूलों में कैसा रस है, इसे मधुमक्खी जानती है और वह जन्म से लेकर मरण पर्यत अनवरत रूप से उसी मधुरिमा में निमग्न रहती है। न थकती है, न ऊबती है, और कभी यह नहीं सोचती कि इतना लम्बा समय मधु संचय के प्रयोजन में लग गया, अब कोई धंधा ढूंढ़ेंगे, विश्राम करेंगे। वह ऐसा इसलिए नहीं सोच सकती कि उसकी अंतरात्मा उस क्रियाकलाप की गरिमा को समझी ही नहीं, स्वीकार भी कर चुकी है।

भ्रमर का आशय और कहां है? पराग से विमुख होकर वह और क्या खोजे? तितली को अपने सौन्दर्य के समतुल्य पुष्प के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। आखिर, वह जाए भी कहां? बैठे भी कहां? करे भी तो क्या? जिनका दृष्टिकोण उत्कृष्टता का अभ्यस्त हो गया, उन्हें निकृष्टता की दुर्गन्ध में श्वास ले सकना संभव भी नहीं है। सेवा धर्म छोड़कर अन्यत्र आत्मा की गरिमा के अतिरिक्त और कोई कार्य है भी तो नहीं।



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