अहोभाव
तुम उदास होते हो तो तुम्हें लगता है कि कुछ बुरा हुआ है। तब तुम उससे बचने की कोशिश करते हो।
जग्गी वासुदेव |
तुम इस कोशिश पर गौर नहीं करते। तब तुम किसी दूसरे के पास जाते हो: किसी पार्टी में, किसी क्लब में, या फिर टीवी या रेडियो चला देते हो, या अखबार पढ़ने लगते हो--कुछ भी, जिससे तुम इसे भुला सको। तुम्हें यह गलत दृष्टि दी गई है-कि उदासी गलत है। इसमें कुछ बुरा नहीं है। यह जीवन का दूसरा छोर है। प्रसन्नता एक छोर है, उदासी दूसरा। आनंद एक छोर है, दुख दूसरा। जीवन दोनों से मिलकर बना है, और जीवन एक क्रियाकलाप है इन दोनों के कारण। आनंदपूर्ण जीवन का केवल विस्तार होगा, उसमें गहराई नहीं होगी। केवल उदासी के जीवन में गहराई होगी, विस्तार नहीं। उदास और आनंदपूर्ण जीवन बहुआयामी होता है; यह सभी दिशाओं में एक साथ चलता है। बुद्ध की प्रतिमा को ध्यान से देखो या कभी मेरी आंखों में देखो, तुम दोनों को एक साथ पाओगे-आनंद, शांति, और उदासी भी। तुम ऐसा आनंद पाओगे जिसमें उदासी भी है, क्योंकि वह उदासी तुम्हें गहराई देती है। बुद्ध की प्रतिमा को देखो-आनंदपूर्ण, लेकिन फिर भी उदास। मात्र ‘उदास’ शब्द ही तुम्हें गलत अर्थ देता है-कि कुछ गलत है। यह तुम्हारी धारणा है। मेरे लिए जीवन अपनी समग्रता में ही शुभ है।
और जब तुम जीवन को अपनी समग्रता में समझ लेते हो, तभी तुम उसका उत्सव मना सकते हो; नहीं तो यह असंभव है। उत्सव का अर्थ होता है-जो भी होता है वह गौण है-मैं तो उत्सव मनाऊंगा। उत्सव किन्हीं विशेष बातों पर निर्भर नहीं है:‘कि मैं खुश हूं, इसलिए उत्सव मनाऊंगा’ या ‘जब मैं अप्रसन्न होऊंगा उत्सव नहीं मनाऊंगा’। यह उदासी लाता है-शुभ है, मैं इसका उत्सव मनाता हूं। यह प्रसन्नता लाता है-शुभ है, मैं इसका जश्न मनाता हूं। उत्सव ही मेरा नजरिया है, फिर जीवन भले ही कुछ भी लाए। परंतु एक समस्या खड़ी हो जाती है क्योंकि मैं जब भी शब्दों का प्रयोग करता हूं, उन शब्दों के अर्थ तुम्हारे चित्त पर हैं। जब मैं कहता हूं, ‘उत्सव मनाओ’ तो इसका अर्थ खुश होना है, जब कोई उदास है तो उत्सव कैसे मना सकता है? मैं यह नहीं कह रहा कि उत्सव मनाने के ल्एि खुश होना आवश्यक है। उत्सव का अर्थ है जीवन ने हमें जो भी दिया है उसके प्रति अहोभाव। अस्तित्व हमें जो भी दे, उत्सव उसके प्रति धन्यवाद का भाव है, अहोभाव है।
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