दान

Last Updated 03 Dec 2020 05:11:33 AM IST

दान का अर्थ है देवत्व के अनुरूप देते रहने की वृत्ति को जिंदा रखना।


श्रीराम शर्मा आचार्य

शास्त्र कहता है-सौ हाथों से कमाओ, हजार हाथों से बांटो। दुनिया में सम्मान उनके लिए ही सुरक्षित है जो देते रहते हैं, पर बदले में कम पाने पर भी अपना काम चला लेते हैं। दो और पाओ, बोओ और काटो, बांटो और झोली भर लो का सिद्धांत एक शात सत्य के रूप में सदा से कार्य करता आया है। आज का समय बड़ी अभूतपूर्व घड़ियों में आया है। यह एक असाधारण समय है। ऐसे में धन-साधन के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण जिसे माना गया है, वह है-समयदान। यह सभी के लिए सुलभ है। यदि समयदान के साथ श्रद्धा का पुट और लग जाए तो लोक मंगल के अनेक कार्य संभव हैं। महान मनीषियों की साधना समय की तप:शिला पर बैठकर ही संपन्न हुई है। लोकसेवियों ने समयदान के सहारे अनेक असंभव कार्य कर दिखाए हैं परन्तु यह कार्य तभी बन पड़ता है, जब अंतराल की गहराई से आदशरे के राजमार्ग पर चलने के लिए बेचैन करने वाली टीस निरंतर उठती है। आज आस्था पर संकट रूपी दुर्भिक्ष जब प्रेत-पिशाच की तरह चढ़ा हुआ है, समयदान को युगधर्म मानकर तत्काल उसमें जुटना होगा। श्रेष्ठ कार्य यदि सामने हो तो उसे तुरंत करना चाहिए, यह उक्ति चरितार्थ करते हुए युग संधि महापुरचरण की वेला में सभी को बढ़-चढ़कर समयदान करना चाहिए।

दान-पुण्य शब्द एक साथ मिलकर बोले जाते हैं और इनके प्रतिफल भी समानांतर बताए जाते हैं। अध्यात्म की भाषा में इनकी महत्ता स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, वरदान, चमत्कार आदि के रूप में कही जाती है और बोलचाल की भाषा में इन्हें प्रगति, सफलता, वरिष्ठता और प्रदाता तक बताया जाता है। दान अर्थात देना, यही पुण्य है। लेना अर्थात अधिकारों का अपहरण, यही पाप है। पाप की परिणति लौकिक और पारलौकिक क्षेत्र में अवगति-दुर्गति स्तर की होती है। नरक इसी का आलंकारिक प्रतिपादन है। दोनों में से अपनी गतिविधियां किस पक्ष के साथ विनियोजित करना है, यह मनुष्य की अपनी इच्छाओं की बात है। परिस्थितियां कई बार इस चयन के विपरीत दबाव भी डालती देखी गई हैं पर अंतत: होता वही है, जिस पर इच्छा-शक्ति संकल्प बनकर केंद्रीभूत होती है। 



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