धन का संग्रह पाप

Last Updated 06 Feb 2020 03:18:54 AM IST

गोपाल्लव हजार गायों का स्वामी नगर-सेठ। धन की अथाह राशि थी उसके पास।


श्रीराम शर्मा आचार्य

वैभव विलास से परिपूर्ण जीवन का एक क्षण भी तो उसे ऐसा याद नहीं आ रहा था जब उसने निद्र्वद्वता प्राप्त की हो। विषय-भोगी गोपाल्लव को यह सब भली प्रकार सोचने का अवसर तब मिला जब राजयक्ष्मा से पीड़ित होकर रोग शैया से जा लगा।

गोपाल्लव सोच रहे थे-‘धन की आसक्ति, विषयों के सुख का आकषर्ण कितना प्रबल है कि मनुष्य यह भी नहीं सोच पाता कि इस संसार से परे भी कुछ है क्या? शरीर कृश और जराजीर्ण हो गया तब कहीं मृत्यु याद आती है, और मनुष्य सोचता है कि जीवन व्यर्थ गया, पाया कुछ नहीं, गांठ में था सो भी खो दिया’। यही सोच रहे थे तभी उनके कर्ण-कुहरों पर टकराई एक ध्वनि-बहुत मीठी, भक्ति की भावनाओं से ओत-प्रोत। लगा कि द्वार पर ही बैठा हुआ कोई भक्ति-गीत गा रहा है।

भजन सुनने से उन्हें ऐसा आराम मिला कि नींद आ गई। प्रगाढ़ नींद टूटी तो वह स्वर-अन्तर्धान हो चुका था। गोपाल्लव ने परिचारक से पूछा-‘अभी थोड़ी देर पूर्व बाहर कौन गा रहा था उसे भीतर तो बुलाना, बड़ा ही कर्ण प्रिय स्वर था। उसने मुझे जो शान्ति प्रदान की वह अब तक कभी भी नहीं मिली।’ परिचारक ने हंसकर कहा-‘वह कोई संगीतज्ञ नहीं था आर्य! वह तो नगर का मोची है। बड़ा ईश्वर भक्त है। तभी तो उसके हर शब्द से रस टपकता है।’ प्रात:काल वही स्वर फिर सुनाई दिया। गोपाल्लव ने मोची को बुलाकर उसे एक स्वर्ण मुद्रा देते हुए कहा-‘तात! यह लो स्वर्ण मुद्रा तुम्हारे कल के गीत ने मुझे अपूर्व शान्ति प्रदान की।’ उसके बाद कई दिन  उसका स्वर सुनाई न दिया।

सप्ताहांत मोची गोपाल्लव के पास जाकर बोला-‘अर्थ कामेष्वसक्तानां धर्म ज्ञानं विधीयते’ तात! धन और इंद्रियों के वशवर्त्ती नहीं है, जो वही धर्म और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। आत्म-कल्याण के मार्ग में ये दोनों वस्तुएं बाधक हैं।’ यह कहकर उसने स्वर्ण मुद्रा लौटा दी। गोपाल्लव ने पूछा-‘कई दिन से आये नहीं।’ मोची ने उत्तर दिया-‘आर्य! धन की तृष्णा बुरी होती है आपकी दी इस स्वर्ण मुद्रा की रक्षा और उसके उपयोग का चिंतन करने के आगे मुझे अपना मार्ग ही भूल गया था, इसीलिए तो इसे लौटाने आया हूं।’ गोपाल्लव ने अनुभव किया धन का जीवनोपयोगी उपभोग ही पर्याप्त है।



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment