परमात्मा से पुकार
आत्मा ने परमात्मा से याचना की ‘असतो मा समय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय’। यह तीनों ही पुकारें ऐसी हैं, जिन्हें द्रौपदी और गज की पुकार के समतुल्य समझा जा सकता है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
निर्वस्त्र होते समय द्रौपदी ने अपने को असहाय पाकर भगवान को पुकारा था। गज जब ग्राह के मुख में फंसता ही चला गया, पराक्रम काम न आया, जब जौ भर सूंड़ जल से बाहर रह गई, तो उसने भी गुहार मचाई। दोनों को ही समय रहते सहारा मिला। एक की लाज बच गई, दूसरे के प्राण बच गए।
जीवात्मा की तात्त्विक स्थिति भी ऐसी ही है। उसका संकट इनसे किसी भी प्रकार कम नहीं है। प्रश्न उठता है कि इस स्थिति का कारण क्या है? जब इस प्रश्न पर विचार किया जाता है, तब पता चलता है कि जो असत्य था, अस्थिर था, नाशवान था, जाने वाला था, उसे चाहा गया, उसे पकड़ा गया। जो स्थिर, शात, सनातन, सत-चित आनन्द से ओत-प्रोत था, उसकी उपेक्षा की गई। फलस्वरूप भीतर और बाहर से सब प्रकार से सम्पन्न होते हुए भी अभावग्रस्तों की तरह, दीन-हीन की तरह, अभागी जिन्दगी जियी गई। सत स्थिर आत्मा है।
गुण कर्म स्वभाव में सन्निहित मानवीय गरिमा ही सत है। जो सत को पकड़ता है,अपनाता है और धारण करता है, उसका आनन्द सुरक्षित रहता है। भीतर से उभरी गरिमा बाह्य जीवन को भी उल्लसित, विकसित विभूतिवान बना देती है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में ऐसी शालीनता भर देती है, जिसका प्रतिफल दसों दिशाओं में अमृत तुल्य अनुदान बरसता है। ‘असतो मा समय’। उसे सत की उपलब्धि हो। असत की ओर आंखें मूंदकर दौड़ने की प्रवृत्ति रुके। शान्ति का सरोवर सामने रहते हुए भी सड़न भरे दल-दल में घुस पड़ने और चीखने-चिल्लाने की आदत पर अंकुश लगे।
अपने अंतराल से ही आनन्द का ऐसा निर्झर बहे, जो अपने को गौरव प्रदान करे और दूसरों की हित साधना करते हुए धन्य बने। आत्मा की दूसरी पुकार है- ‘तमसो मां ज्योतिर्गमय’। हे सर्वशक्तिमान! हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल। जो क्रम अपनाया गया है, वह अंधकार में भटकने के समान है। रात के अंधियारे में कुछ पता नहीं चलता कि किस दिशा में चल रहे हैं। यथार्थता का बोध नहीं होने से ठोकर खाते और कांटों की चुभन से मर्माहत होते हैं।
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