कर्मफल
अहंकार और अत्याचार संसार में आज तक किसी को बुरे कर्मफल से बचा न पाए।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
रावण का असुरत्व यों मिटा कि उसके सवा दो लाख सदस्यों के परिवार में दीपक जलाने वाला भी कोई न बचा। कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु की कहानियां पुरानी पड़ गई। हिटलर, सालाजार, चंगेज और सकिंदर, नेपोलियन जैसे नर-संहारकों का अंत कितना भयंकर हुआ यह भी अब अतीत की गाथाएं हैं। नागासाकी पर बम गिराने वाले अमेरिकन वैमानिक फ्रेड ओलीपी और हिरोशिमा के विलेन मेजर ईथरली का अंत कितना बुरा हुआ, यह देखकर सुनकर सैकड़ों लोगों ने अनुभव कर लिया कि संसार संरक्षक के बिना नहीं है। शुभ-अशुभ कर्मो का फल देने वाला न रहता होता, तो संसार में आज जो भी कुछ चहल-पहल दिखाई दे रही है, वह कभी की नष्ट हो चुकी होती। यहां कहानी एक ऐसे विलेन की है जिसने अपने दुष्कर्मो का बुरा अंत अभी-अभी कुछ दिन पहले ही भोगा है। जलियावाला हत्याकांड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहसबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को। हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निंदा की, उससे उसका मन अशांत हो उठा।
तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किए हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलत: अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई। 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया। उसका आधा शरीर बेकार हो गया। गठिया हो गया। उसके मित्र साथ छोड़ गए। उसके संरक्षक माइकेल ओडायर की हत्या कर दी गई। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई। लाख कोशिशों के बावजूद ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर मर गया। अंतिम शब्द उसके यह थे-‘मनुष्य को परमात्मा ने यह जो जीवन दिया है, उसे बहुत सोच-समझ कर बिताने वाले ही व्यक्ति बुद्धिमान होते हैं, पर जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं, न लजाते हैं, उनका क्या अंत हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’
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