अहंकार
स्वाभिमान और अहंकार देखने में एक जैसे लगते हैं, पर उनकी प्रकृति और परिणति में जमीन-आसमान जैसा अंतर है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
अहंकार भौतिक पदाथरे या परिस्थितियों का होता है। धनबल, सौंदर्यबल, साधन, शिक्षा, कला-कौशल आदि के बलबूते अपने को दूसरों से बड़ा मान बैठना, दर्प दिखाना और पिछड़ों का तिरस्कार, उपहास करना अहंकार है।
स्वाभिमान आत्मगौरव के संरक्षण एवं अभ्युदय का प्रयास है। इसमें आंतरिक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण रखने का साहस होता है। दबाव या पल्रोभन पर फिसल न जाना और औचित्य से विचलित न होना स्वाभिमान है। इसकी रक्षा करने में बहुधा कष्ट-कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है और दुर्जनों का विरोध भी सहना पड़ता है।
जब अहंकार बढ़ने लगता है तो व्यक्ति की संवेदनशीलता, सरसता और सगुणों का ह्रास होने लगता है। इस मनोविकृति के भार से मनुष्य बोझिल बनता है और उसका विकास अवरु द्ध होता है। शास्त्रों का कथन है कि ‘अहंकार’ ने ही आत्मा को पृथ्वी की खूंटी से बांध रखा है। आत्मा इसी विकार के कारण व्यर्थ के देहानुशासन से आबद्ध है और इसीलिए वह परमतत्त्व से वंचित है। मनीषियों का कहना है कि अहंकार मनुष्य को गिराता है। उसे उद्ण्ड और परपीड़क बनाता है।
उसे साथियों को पीछे धकेलने, किसी के अनुग्रह की चर्चा न करने, दूसरों के प्रयासों को हड़प जाने के लिए अहंकार ही प्रेरित करता है, ताकि जिस श्रेय की स्वयं कीमत नहीं चुकाई गई है, उसका भी लाभ उठा लिया जाए। ऐसे लोग आमतौर से कृतघ्न होते हैं और अपनी विशेषताओं और सफलताओं का उल्लेख बढ़-चढ़कर बार-बार करते हैं। उनमें नम्रता, विनयशीलता का अभाव होता जाता है। सो ऐसे व्यक्ति दूसरों की नजर में निरंतर गिरते जाते हैं, घृणास्पद बनता हैं। ऐसे लोग अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाते हैं और अन्तत: घाटे में रहता है। आत्म-सम्मान की रक्षा करनी हो तो अहंकार से बचना ही चाहिए।
तत्त्ववेत्ता मनीषियों का कहना है कि प्राय: घर-द्वार छोड़ने और वैराग्य की चादर ओढ़ लेने पर भी अहंकार नहीं छूटता। ऐसा व्यक्तिसोचता है कि मैंने बहुत बड़ा त्याग किया है। इसी तरह धन छोड़ देने या दान कर देने की भी अहम वृत्ति बनी रहती है। तथाकथित मोहमुक्तों का भी स्त्री-बच्चों के प्रति लगाव कहां छूटता है? बड़े ओहदे, पद-प्रतिष्ठा को छोड़ देने वाले भी इस अहंभाव से ग्रस्त पाए जाते हैं।
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