धर्म का स्वरूप
आज के समय में लोगों ने धर्म को मजहब या संप्रदाय का पर्यायवाची मान लिया है। ‘धर्म’ शब्द सुनते ही वे इसे कोई मत-पंथ या संप्रदाय समझते हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
यह नितांत भूल है। इसी के चलते धर्म की गरिमा संदिग्ध हो गई है। मनुष्य धार्मिक कहलाने में गर्व अनुभव करने के बदले संकोच अनुभव करता है। इस भ्रम को दूर करना जरूरी है। ‘धर्म’ कोई संप्रदाय नहीं, कोई मत-पंथ नहीं, बल्कि ऐसी रीति-नीति है, जो मानव को महामानव बनाती है। वह धारण करने की वस्तु है, न कि रटने भर की। रटने भर के धर्म में कोई ताकत नहीं होती जो किसी को कुछ दे दे। सृष्टि निर्माण में मानवी चेतना के प्रादुर्भाव के साथ ही कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य की भावना ने सामाजिक प्राणी मानव के समक्ष धर्म का स्वरूप प्रस्तुत कर दिया। धर्म-भावना ईरवादी सृष्टि से भी ऊंची है। संसार में कोई भी राष्ट्र, कोई भी प्राणी अधार्मिक होकर जी नहीं सकता क्योंकि प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जो कुछ भी संभव हो सकता है, वह सब धर्म की सीमाओं में रहकर ही हो सकता है। मनुष्य का धर्म यह है कि वह बाह्य व्यवहार एवं आंतरिक वृत्तियों का परिशोधन करे, अपने मूल रूप को जीवन में व्यक्त करे। यही शुद्ध स्वरूप ज्ञान ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की श्रेष्ठतम भावनाओं को स्फुरित कर लोकमंगल को सहज साध्य बना सकता है।
स्थूल स्तर पर हम धर्म को दो रूपों में देख सकते हैं। एक, वह जो देश, काल, पात्र के अनुरूप आचार संहिता प्रस्तुत करता है। धर्म का यह स्वरूप देश, काल और पात्र का सापेक्ष होता है। दूसरा स्वरूप वह है जो मूल तत्त्व है, शात है, अजर, अमर, अपरिवर्तनीय व अविनाशी है। धर्म का यह स्वरूप सार्वभौम, सार्वकालिक एवं सर्वजनीन होता है। यहीं आकर मानव ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदात्त भावना पर विहार करने लगता है। लेकिन दुर्भाग्य से मानव धर्म के मूल तत्त्व भी देश, काल, पात्र की संकुचित सीमाओं में बाँधकर साम्प्रदायिक संकट का कारण बना दिए गए हैं। हमने विवेक को तिलांजलि देकर मानव धर्म को मजहब एवं सम्प्रदाय के शिकंजे में फंसने दिया और अनिष्टकर स्थिति पैदा करते चले गए। आज फिर से धर्म संबंधी भ्रमात्मक परिभाषा बदल कर उसके सही स्वरूप को समझने की अति जरूरत है। उसके सार्वभौम और कल्याणकारी स्वरूप को समझ कर ही हम उससे समुचित लाभ उठा सकते हैं।
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