दुख-सुख
आज तक का समाज दुख से भरा हुआ समाज है, उसकी ईट ही दुख की है, उसकी बुनियाद ही दुख की है.
आचार्य रजनीश ओशो |
और जब दुखी समाज होगा तो समाज में हिंसा होगी, क्योंकि दुखी आदमी हिंसा करेगा. और जब समाज दुखी होगा और जीवन दुखी होगा तो आदमी क्रोधी होगा, दुखी आदमी क्रोध करेगा. और जब जिंदगी उदास होगी, दुखी होगी, तो युद्ध होंगे, संघर्ष होंगे, घृणा होगी. दुख सब चीज का मूल उदगम है. यदि नये समाज को जन्म देना हो तो दुख की ईटों को हटा कर सुख की ईटें रखनी जरूरी हैं.
और वे ईटें तभी रखी जा सकती हैं जब हम जीवन के सब सुखों को सहज स्वीकार कर लें और सब सुखों को सहज निमंतण्रदे सकें. निश्चित ही, बूंद-बूंद सुख आते हैं; इकट्ठा सुख नहीं बरसता है.
इकट्ठा पानी भी नहीं बरसता है; बूंद-बूंद सब बरस रहा है. उस बूंद-बूंद को स्वीकार कर लेना पड़ेगा. क्षण ही हमारे हाथ में आता है. एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में नहीं है. उस क्षण में ही जीना है, उस क्षण में ही सुख को पूरा का पूरा पी लेना है. उस क्षण को खाली रिक्त जो छोड़ देगा और प्रतीक्षा करेगा कि शात को पाएंगे हम-क्षण भी छूट जाएगा, शात भी नहीं मिलेगा.
क्षण को पीने की कला, सुख-सृजन की कला है. आदमी सुखी हो सकता है अगर वह प्रतिपल, जो उसे मिल रहा है, उसे पूरे अनुग्रह से और पूरे आनंद से आलिंगन कर ले. सांझ फूल मुरझाएगा, अभी तो फूल जिंदा है! सांझ की चिंता अभी से क्या? जब तक फूल जिंदा है तब तक उसके सौंदर्य को जीया जा सकता है. और जिस व्यक्ति ने जिंदा फूल के सौंदर्य को जी लिया, वह जब फूल मुरझाता है और गिरता है, तब वह दिन भर के सौंदर्य से इतना भर जाता है कि फूल की संध्या और गिरती हुई पंखुड़ियां भी फिर उसे सुंदर मालूम पड़ती हैं.
आंख में सौंदर्य भर जाए तो पंखुड़ियों का गिरना पंखुड़ियों के खिलने से कम सुंदर नहीं है. और आंख में सौंदर्य भर जाए तो बचपन से ज्यादा सौंदर्य बुढ़ापे का है. लेकिन जीवन भर दुख से गुजरता हो तो सांझ भी कुरूप हो जाती है.
मैं समझ पाता हूं कि अगर एक नया मनुष्य पैदा करना है-जो कि नये समाज के लिए जरूरी है-तो हमें क्षण में सुख लेने की क्षमता और क्षण में सुख लेने का आदर और अनुग्रह पैदा करना पड़ेगा. हमें यह कहना बंद कर देना पड़ेगा कि सांझ फूल मुरझा जाएगा. सांझ तो सब मुरझा जाएंगे. सांझ तो आएगी, लेकिन सांझ का अपना सौंदर्य है, सुबह का अपना.
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