संवेदनशीलता
आजकल हम ‘विकलांग’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करते. उन्हें ‘स्पेशल बच्चे’ या ‘स्पेशल व्यक्ति’ कहते हैं. वह स्पेशल हैं, इसलिए आपको बाकियों से थोड़ा अधिक ध्यान उन पर देना पड़ता है.
जग्गी वासुदेव |
यह आपके लिए एक अवसर है कि आप अपनी मानवता दिखा सकें और जीवन को संवेदनशीलता से संभालना सीख सकें.
इस तरह की संवेदनशीलता इंसानों में सहज रूप से होनी चाहिए, इसके लिए किसी आध्यात्मिक या दैवी समाधान की जरूरत नहीं है. रोग, जख्म और जन्मजात दोष जीवन की हकीकत हैं. यह सच है कि हम हर किसी को पैरों के साथ देखना चाहेंगे लेकिन अगर किसी के पास पैर नहीं हैं, तो यह उसके लिए भारी दुख का कारण नहीं बनना चाहिए.
लोग उसकी मदद कर सकते हैं ताकि उसका जीवन उतना मुश्किल न हो. यह एक व्यक्तिगत समस्या से अधिक सामाजिक समस्या है, जिसे हल करना जरूरी है. अलग-अलग लोगों में अलग-अलग क्षमताएं होती हैं. हम सभी 9 सेकेंड में 100 मीटर नहीं दौड़ सकते. क्या इसका यह मतलब है कि हम विकलांग हैं? जो व्यक्तिऐसा कर सकता है, उसके मुकाबले तो हम विकलांग ही हुए न?
तो ‘विकलांग’ एक तुलनात्मक शब्द है. लोगों में शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का स्तर अलग-अलग होता है. मगर समाज एक चीज जरूर कर सकता है, जहां तक संभव हो, समान अवसर पैदा करना. आप लोगों में बराबरी नहीं ला सकते. यह क्रूरता होगी. अगर एक व्यक्ति के पास एक पैर नहीं है, तो क्या आप हर किसी का एक पैर काट देंगे? क्या यही समानता है?
समानता एक मूर्खतापूर्ण विचार है. मगर हर समाज में सभी के लिए समान अवसर जरूर होना चाहिए. एक समय था, जब बहुत से लोगों को पोलियो हो जाता था. स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोग पूरी कोशिश कर रहे हैं कि हर बच्चे को पोलियो का टीका लग सके. लेकिन फिर भी अगर किसी को पोलियो हो जाए, तो समाज को उसे जरूरी मौका देना चाहिए ताकि वह एक संपूर्ण जीवन जी सके.
चाहे पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चढ़ने की बात हो या सार्वजनिक जगहों पर जाने की, कई देशों में अब भी विकलांग लोगों के लिए काफी उपाय नहीं किए गए हैं जिससे वे समाज में अपना काम चला सकें. लगभग हर चीज जो हमने बनाई है, वह उनके लिए एक बाधा है.
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