कर्म का फल

Last Updated 21 Aug 2017 04:57:04 AM IST

अपने दैनिक जीवन में वैसे तो हम कई प्रकार के कार्यों का निष्पादन करते हैं, जिनमें से कुछ कार्य सार्थक होते हैं और कुछ कार्य निर्थक.


सुदर्शनजी महराज (फाइल फोटो)

किसी भी उद्देश्य के साथ किए गए कार्य को सार्थक कार्य कहते हैं. ऐसा माना जाता है कि किसी भी ‘सार्थक कार्य’ का समुचित फल अवश्य मिलता है. जबकि बिना किसी उद्देश्य के किए गए कार्य को निर्थक कार्य कहा जाता है. लिहाजा इसका समुचित फल भी प्राप्त नहीं होता.

दरअसल, हम जिस किसी भी कार्य को निष्ठापूर्वक करते हैं  उसका फल हमें अवश्य मिलता है. मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सब कर्म है, लेकिन इनमें से कुछ कर्म सार्थक होते हैं और कुछ निर्थक.

मेरा मानना है कि जो भी व्यक्ति ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करता है, उसका कर्म कभी निष्फल नहीं होता. लेकिन ऐसा प्रत्येक कर्म निष्फल हो जाता है जिसमें कर्ता को अभिमान का बोध होता है.

कहा जाता है कि जब कर्ता में अभिमान का विसर्जन हो जाए तो उसके द्वारा किया गया कर्म सार्थक बन जाता है. वैसे भी कर्म का फल उसी को मिलता है, जो निष्ठापूर्वक और निराभिमान होकर कर्म करता है. लेकिन जो लोग कर्म के प्रति निष्ठावान नहीं होते और कर्म करने के पूर्व ही फल के प्रति आकांक्षी हो जाते हैं, वे जीवन में किसी भी फल की प्राप्ति नहीं कर सकते.



यह सोचकर कि कर्म का फल तो मिलना ही है, यदि हम निष्काम कर्म करेंगे तो उसका परिणाम तो मिलेगा ही. दरअसल, फल के रूप में हमें वही प्राप्त होता है. दूसरी ओर यदि कोई कर्म न करे और जीवनभर फल की कामना करता रहे तो उसे जीवन में अमृतकलश की प्राप्ति नहीं हो सकती.

रामचरितमानस के एक संदर्भ में लंकापति रावण ने इसी को स्पष्ट करते हुए लक्ष्मण के संदर्भ में कहा है कि जो व्यक्ति जमीन पर पड़ा हो और हाथ से आकाश पकड़ना चाहता हो, वह मूर्ख नहीं है तो और क्या है.

दरअसल, गोस्वामी तुलसीदास जी ने यहां रावण के मुख एक बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन कराया है. लेकिन ऐसा केवल लखन लाल के संबंध में ही नहीं कहा जा सकता. यह तो हम सबों के लिए भी उपयुक्त है. क्योंकि जा कर्म नहीं करे, अपने कर्तव्य भुला दे, पराश्रित होकर जीवन जीने का प्रयास करे, जीवन को व्यवस्थित करने का कोई प्रयास न करे, उसके जीवन में कोई उपलब्धि नहीं हो पाती.

सुदर्शनजी महराज


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