नदियां
इस सभ्यता के निर्माण के दौरान प्राचीन भारत को हमेशा सात नदियों की धरती कहा गया.
धर्माचार्य जग्गी वासुदेव |
नदियां हमारे लिए इतनी महत्त्वपूर्ण रही हैं कि लोग उनकी पूजा करते हैं. हमने उनकी पूजा जरूर की मगर उनका ध्यान नहीं रखा. नदियां इस देश में लाखों सालों से बहती रही हैं. लेकिन अब हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां नदियां गंभीर खतरे से जूझ रही हैं.
हम इस पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देते रहे हैं कि नदियों से लाभ कैसे उठाएं. इसमें हमारा अद्भुत रिकार्ड रहा है कि हम एक अरब लोगों के लिए भोजन पैदा करते हैं. यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है. लेकिन इस प्रक्रिया में हम यह भी पक्का कर रहे हैं कि भावी पीढ़ी के पास कुछ भी खाने-पीने को नहीं होगा.
आज हमारी नदियां इस दर से घट रही हैं कि वे 20 सालों में मौसमी हो जाएंगी. जो नदियां लाखों सालों से जल की बारहमासी सोत रही हैं, वे दो पीढ़ियों में मौसमी बन जाएंगी. कावेरी अभी से साल में लगभग तीन महीने समुद्र तक नहीं पहुंच पाती और इस घटती नदी के लिए दो राज्यों में झगड़ा चल रहा है. कृष्णा नदी लगभग चार से पांच महीने समुद्र तक नहीं पहुंच पाती और यही हाल हर जगह है.
हम बाकी सभी अनिश्चितताओं को झेल सकते हैं, लेकिन अगर हमारे पास पानी और अपनी आबादी के लिए भोजन पैदा करने की क्षमता नहीं रही, तो हमाने सामने एक भारी आपदा होगी. हम हर साल लगभग 5.3 अरब टन ऊपरी मिट्टी खो दे रहे हैं. यह लगभग सालाना मिट्टी के एक मिलीमीटर ऊपरी परत के बराबर है. अगर हम उसकी भरपाई किए बिना इसी गति से आगे बढ़ते रहे, तो लगभग पैंतीस से चालीस सालों में देश की मिट्टी की सारी ऊपरी परत, जो फसल उगाने के लिए जरूरी है, पूरी तरह नष्ट हो जाएगी.
पिछले तीस से पैंतीस सालों में पहले ही लगभग पच्चीस फीसद ऊपरी मिट्टी नष्ट हो चुकी है. अगर ऐसा चलता रहा, तो हम इस धरती को रेगिस्तान में बदल देंगे. प्राचीन काल से ऐसा चलता आ रहा है कि जब हम फसलें उगाते थे तो सिर्फ फसल काटते थे, पौधे का बाकी हिस्सा और पशुओं का अपशिष्ट हमेशा वापस मिट्टी में चला जाता था. मगर आज हम लोग सब कुछ निकाल ले रहे हैं और कुछ भी वापस नहीं डाल रहे हैं.
हमें लगता है कि सिर्फ खाद डाल देने से सब हो जाएगा. हमारे भोजन की गुणवत्ता और पोषक मूल्य तेजी से कम हो रहे हैं. और भोजन उगाने की हमारी क्षमता जल्दी ही खत्म हो सकती है, क्योंकि हम इस जमीन को रेगिस्तान में बदल रहे हैं.
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