पूर्णता
आरंभ में ध्यान करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से यह साध्य बन जाता है. हालांकि इसके लिए निरंतर अभ्यास करना जरूरी है.
सुदर्शनजी महराज (फाइल फोटो) |
कहते हैं कि यदि मन के ऊपर संपूर्ण नियंत्रण हो तो यह स्थिति आसानी से प्राप्त हो जाती है. ऐसे मनुष्यों के लिए तो स्थान का महत्त्व रहता ही नहीं. यह पूर्णता की स्थिति है. कठोपनिषद् में वर्णन मिलता है कि ब्रह्माजी ने इंद्रियों को बहिमरुखी किया है. इसलिए मनुष्य इंद्रियों द्वारा बाहर की वस्तुओं को ही देख पाता है, अंतरात्मा को नहीं.
कोई धीर-विवेकी मानव ही अमृत्व पाने की इच्छा से चक्षु आदि इंद्रियों को बाह्य क्रियाओं में से निकालकर अंतरात्मा को निहारता है. इंद्रियों का स्वभाव बहिर्मुखी मन को निरंतर अभ्यास द्वारा अंतमरुखी करना है और ईश्वर का साक्षात्कार कराना है. फिर वह आत्मा के साथ एकरूप हो जाता है. बाद में उसे शरीर बोध नहीं रहता और वह मृत्यु के ऊपर भी विजय प्राप्त कर लेता है, परंतु इसके लिए बाहर दौड़ते हुए मन को बलपूर्वक, यत्नपूर्वक अंतर में लगाना पड़ता है. इस कार्य में सतत लगे रहना पड़ता है.
यह किसी चमत्कार की तरह एक ही दिन में नहीं हो जाता. इस संदर्भ में श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं कि किसान दो प्रकार के होते हैं-एक खानदानी. दूसरा साधारण. साधारण किसान खेती में होता लाभ देखकर ललचाता है, सब्सिडी मिलेगी, जमीन मेहसूल में राहत मिलेगी, वर्ष के अंत में खूब लाभ मिलेगा आदि.
वह यह सोचकर खेती करता है, पर यदि एक वर्ष अकाल पड़ जाए, दूसरे वर्ष भी लाभ न हो तो वह खेती छोड़ देता है और कहता है कि इसमें लाभ नहीं है. लेकिन खानदानी किसान दो क्या पांच वर्ष तक भी कुछ न मिले तो भी खेती करना नहीं छोड़ते. वह जो असली किसान है, खेती में लगा ही रहता है.
इसी प्रकार साधक भी दो प्रकार के होते हैं. प्रथम प्रकार के साधकों को तुरंत फल चाहिए. वे धैर्यपूर्वक परिश्रम करना नहीं चाहते. थोड़ी सी मेहनत से ही थक जाते हैं. ये मेरा काम नहीं, कहकर मन को एकाग्र करने का काम छोड़ देते हैं. दूसरे प्रकार के साधक वे होते हैं जो सच्चे हैं. वे कहते हैं कि ध्यान लगना ही चाहिए. आज भले ही न लगे, पर कल तो जरूर लगेगा. यह मानकर वह प्रतिदिन प्रयत्न करते हैं. इस प्रकार प्रतिदिन प्रयत्न करने से उनका मन ध्यान के लिए तैयार हो जाता है और अंत में उन्हें सफलता भी मिल ही जाती है.
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