चेतना
अलग-अलग दिखते हुए भी वस्तुत: हम सभी चेतना के धरातल पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
मनुष्य में जो चैतन्य सत्ता हलचल कर रही है, वही संपूर्ण जगत एवं प्राणी पदार्थ में विद्यमान है. महान पुरुषों ने इसे ही व्यक्त करते हुए कहा है कि ब्रrाण्ड और पिण्ड में, व्यष्टि एवं समष्टि में जितनी भी पंक्तियां काम कर रही हैं, वह सभी प्राण चेतना के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं.
कल्प के आदि से ही अपने मूल रूप महाप्राण से उद्भूत होकर यह सत्ता अंतत: पुन: उसी में समाहित हो जाती है. समत्व एवं एकत्व का दृष्टिकोण अपनाकर चलने और विचारणा, भावना और संवेदना को उच्चस्तरीय बना लेने पर नियंता की अनुभूति हर किसी को हो सकती है. पूर्णता स्तर तक का विकास तभी संभव है.
हमारी चिंतन चेतना जैसी होती है, उसी रूप में वह इस चेतना के समुद्र में संचारित हो जाती है, पर इसे ग्रहण करना पूर्णत: ग्रहीता पर निर्भर करता है. यहां भी ग्रहण नियमानुसार ही होता है. जिस प्रकार समानधर्मी व्यक्ति और विचार परस्पर मिलते और घनीभूत होते हैं, वही बात चेतना के संबंध में भी कही जाती है.
चिंतन-चेतना जिस स्तर की होती है, वह उसी ओर आकषिर्त होती है. उत्कृष्ट स्तर की चेतना सदा सजातीय की ओर खिंचती चली आती है, जबकि निकृष्ट स्तर की चेतना निकृष्टतम की ओर प्रवाहित होती है. महर्षि अरविन्द ने भी चेतना को उच्चतर मन, प्रकाशित मन, संबुद्धि मन और ओवर माइंड चेतना के उच्चतर आयाम को सुपर माइंड कहा है.
उनके अनुसार चेतना के इस सर्वोच्च स्तर का संपूर्ण मानव जाति में अवतरण तभी हो सकेगा, जब वह अपने गुण कर्म स्वभाव में परिष्कार लाकर विचारणा भावना और संवेदना को उच्चस्तरीय बना सके. साथ ही ईश्वर के प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए पूर्ण रूपेण आत्मसमर्पण कर दे.
इस संपूर्ण प्रक्रिया को उन्होंने इवोल्यूशन अर्थात् आरोहण में आत्म परिष्कार कर स्वयं को ऊंचा उठाना और इन्वोल्यूशन अर्थात् अवरोहण में प्रयासपूर्वक भगवद् करुणा को नीचे उतारना कहा है. व्यक्तित्व और चेतना का पूर्ण विकास तभी संभव बन पड़ता है और देवत्व की प्राप्ति भी तभी होती है. इस स्थिति को प्राप्त व्यक्ति को उन्होंने अध्यात्मजीवी कहा है. हम जो चिंतन करते हैं, वही इच्छा आकांक्षा के रूप में शब्द शक्ति बनकर निकलता है. विज्ञान ने भी शब्द को शाक्ति के रूप में स्वीकारा है.
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