अभिलाषा
दुखी मानव जीवन एक अनबूझ पहेली है. अपार रहस्यों से भरा हमारा जीवन एक साथ अनेक दिशाओं में चलते हुए अनेक अर्थों को प्रतिपादित करता है.
सुदर्शनजी महराज (फाइल फोटो) |
यही वजह है कि इस जीवन को प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुरूप धारण करता है. जब हम जीवन के रहस्यों को जानने का प्रयास करते हैं तो एक साथ कई रहस्य सामने आ जाते हैं. कभी यह विचार आता है कि हमारा जीवन सार्थक है, तो कभी यह कि निर्थक है. कभी भगवान पर शंका की उंगली उठती है. इस तरह के अनेक प्रश्न हमारे मन को झकझोरते हैं.
अब एक सवाल यह भी उठता है कि हम अपने इष्टदेव को भगवान क्यों कहते हैं? भगवान राम, भगवान कृष्ण आदि, आदि इस शब्द का औचित्य क्या है? दरअसल, जब हम अपने इष्टदेव का नाम लेते हैं तो उनके साथ हम श्रद्धावाचकाब्द जोड़ते हैं. हम अपने बड़ों के नाम के आगे या पीछे भी कईाब्द जोड़ते हैं. इसका अर्थ है कि हम अपने बड़ों को नाम लेकर नहीं पुकारना चाहते. बहरहाल, अपने इष्टदेव को जब हम भगवान कहते हैं तो इस शब्द को ठीक से समझना भी चाहिए.
मनुष्य की सबसे बड़ी अभिलाषा होती है कि उसे अधिक से अधिक आयु मिले. विद्या मिले. उसे अपार बल हो. बुद्धि हो. ऐर्य हो. शांति मिले. इन छह तत्वों की कामना हरेक को होती है. मानव जीवन कामनाओं से भरा है. अत: मरु भूमि की रेत की तरह हम जितनी कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करते हैं, रेत पर पानी की बूंद की तरह वह विलीन होता रहता है.
इस प्रकार आयु, विद्या, बल, बुद्धि, ऐर्य व शांति की पिपासा जीवन भर बनी रहती है. जो चीज हमारे पास नहीं होती, जिसे पाने की ललक मन में हमेशा रहती है, यदि वह किसी के पास होती है तो हम उसे स्वयं श्रेष्ठ मानने लगते हैं. भगवान शब्द भग व वान से बना है. भग का अर्थ होता है आयु, विद्या, बल, बुद्धि, ऐश्वर्य व शांति का सम्मिलित स्वरूप और वान का अर्थ होता है राहक, अर्थात जिनके पास ये सभी शक्तियां हों, उसी का भगवान कहते हैं. जब हम अपने इष्टदेव की पूजा-अर्चना करते हैं तो हम उनसे यही चाहते हैं कि उनके पास जो ये छह गुण हैं, वे हमें भी प्राप्त हों.
दरअसल, परमात्मा की प्रार्थना में मनुष्य अपना आत्मिक विकास चाहता है. हम प्रकाश की ओर गतिमान हों. हममें वे सभी गुण भर जाएं, जिनका अभाव हमारे जीवन में है. साधक इन्हीं तत्वों की पूर्ति का आह्वान करता है.
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