संतोष
संतोष का अर्थ है : जो कुछ है सुंदर है; यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं.
आचार्य रजनीश ओशो |
गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष; संपूर्ण अस्तित्व जैसा है. उसके प्रति ‘हां’ कहने की अनुभूति है संतोष.
साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है.’ खोजता ही रहता है शिकायतें-‘यह गलत है, वह गलत है.’ साधारणतया इनकार करता है: वह ‘न’ कहने वाला होता है, ‘नहीं’ सरलता से कह देता है. मन के लिए ‘हां’ कहना कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की कोई जरूरत नहीं होती. क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब ‘हां’ कहते हो तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता.
बड़बड़ाने-कुनमुनाने, खीझने, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता-कुछ भी नहीं. जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; यह ठहरना ही संतोष है. संतोष कोई सांत्वना नहीं है-स्मरण रहे. जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते. एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं. सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; धन के लिए नहीं लालायित होता; किसी बात की आकांक्षा नहीं करता.’
लेकिन तुम आकांक्षा करते हो अन्यथा यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती? तुम कामना करते हो, आकांक्षा करते हो, लेकिन तुमने जान लिया है कि करीब-करीब असंभव ही है पहुंच पाना; तो चालाकी करते हो, होशियारी करते हो. स्वयं से कहते हो, ‘असंभव है पहुंच पाना.’ भीतर तुम जानते हो: असंभव है पहुंच पाना लेकिन हारना नहीं चाहते, नपुंसक नहीं अनुभव करना चाहते, दीन-हीन नहीं अनुभव करना चाहते, तो कहते हो, ‘मैं चाहता ही नहीं.’ तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी. एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है.
ऊपर देखती है: अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं. लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है. बहुत कोशिश करती है, लेकिन पहुंच नहीं पाती. फिर चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं. फिर अकड़ कर चल पड़ती है. एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है, और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई. लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं.
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