जीवन साधना
अध्यात्म विज्ञान के साधकों को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन करना पड़ता है.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
सोचना होता है कि मानव जीवन की बहुमूल्य धरोहर इस प्रकार उपभोग करना है, जिससे शरीर निर्वाह-लोक व्यवहार भी चलता रहे, पर साथ ही आत्मिक अपूर्णता को पूरा करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके. ईर के दरबार में पहुंच कर सीना तान कर कहा जा सके कि जो अमानत जिस प्रयोजन के लिए सौंपी गई थी, उसे उसी हेतु सही रूप में प्रयुक्त किया गया है.
इस मार्ग में सबसे बड़ी तीन रुकावट हैं-लोभ, मोह और अहंकार. इन्हीं के कारण मनुष्य पतन और पराभव के गर्त में गिरता है, पशु, प्रेत और पिशाच की जिंदगी जीता है. लोक विजय के लिए सादा जीवन, उच्च विचार का सिद्धांत अपनाना पड़ता है. निर्वाह में संतोष करना पड़ता है. ईमानदारी और परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहना पड़ता है.
जो विलास में अधिक खर्च करता है, प्रकारांतर से दूसरों को उतना ही अभावग्रस्त रहने के लिए मजबूर करता है. इसीलिए शास्त्रकारों ने परिग्रह को पाप बताया है. अधिक कमाया जा सकता है, पर उसमें से निजी निर्वाह में सीमित व्यय करके शेष बचत गिरे हुओं को उठाने, उठे हुओं को उछालने और सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगाई जानी चाहिए. मितव्ययी अनेक र्दुव्यसनों और अनाचारों से बचता है.
ऐसी हवस उसे सताती नहीं, जिसके लिए अनाचार पर उतारू होना पड़े. साधु-ब्राrाणों की यही परंपरा रही है. सज्जनों की शालीनता भी उसी आधार पर फलती-फूलती है. जीवन साधना के उस प्रथम अवरोध लोभ को नियंत्रित कराने वाला दृष्टिकोण हर जीवन साधना के साधक को अपनाना ही चाहिए. मोह वस्तुओं से भी होता है, व्यक्तियों से भी. छोटे दायरे में आत्मीयता सीमाबद्ध करना ही मोह है.
उसके रहते हृदय की विशालता चरितार्थ ही नहीं होती. अपना शरीर और परिवार ही सब कुछ दिखाई पड़ता है. उन्हीं के लिए मरने-खपने के कुचक्र में फंसे रहना पड़ता है. अहंकार मोटे अथरे में घमंड को माना जाता है. अशिष्ट व्यवहार, क्रोध ग्रस्त रहना की अंहकार की निशानी है. लोभ, मोह और अहंकार जिनके पास हैं, उनके लिए जीवन साधना की लंबी व ऊंची मंजिल पर चल सकना असंभव हो जाता है.
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