शिष्टाचार

Last Updated 09 Mar 2017 06:57:49 AM IST

शिक्षित, सम्पन्न और सम्मानित होने के बावजूद कई बार व्यक्ति के संबंध में इसलिए गलत धारणाएं बन जाती हैं कि उसमें शिष्टाचार की कमी होती है.


व्यक्ति चाहे कितना ही सम्पन्न और शिक्षित क्यों न हो, पर उनके व्यवहार में यदि शिष्टता, शालीनता नहीं है तो लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा.

उनकी विभूतियों की चर्चा सुनकर कुछ देर के लिए लोग भले ही प्रभावित हो जाएं, परंतु उनके संपर्क में आने पर उनके अशिष्ट आचरण की छाप उस प्रभाव को धूमिल कर देती उन लोगों को उनसे दूर कर देती है. इसलिए शिष्टाचार सदा आवश्यक होता है. शिष्टता में कुशलता के लिए समय की पहचान भी उतना ही जरूरी है.

शिक्षा, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा की दृष्टि से ऊंचा होते हुए भी व्यक्ति को यदि हर्ष के अवसर पर हर्ष और शोक के अवसर पर शोक की बातें करना न आए तो लोग उसका मुंह देखा सम्मान भले ही कर लें, मगर मन में उसके प्रति कोई अच्छी धारणाएं नहीं रख सकेंगे. शिष्टाचार और लोक व्यवहार का यही अर्थ कि हमें समयानुकूल आचरण और बड़े-छोटे से उचित बर्ताव करना आए. यह गुण किसी विद्यालय में प्रवेश लेकर अर्जित नहीं किया जा सकता. इसके लिए संपर्क और पारस्परिक व्यवहार का अध्ययन और क्रियात्मक अभ्यास आवश्यक होता है.

अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते कि किस अवसर पर किससे कैसा व्यवहार करना चाहिए. कहां किस प्रकार उठना-बैठना चाहिए और किस प्रकार चलना-रुकना चाहिए. यदि खुशी के अवसर पर शोक और शोक के समय हर्ष की बातें की जाएं, बच्चों के सामने दर्शन और वैराग्य और वृद्धों के सामने बालोचित या युवाओं जैसी शरारतें की जाएं, गर्मी में चुस्त, गर्म, भड़कीले वस्त्र और शीत ऋतु में हल्के कपड़े पहने जाएं, तो देखने-सुनने वालों के मन में विपरीत भावनाएं आएंगी.

कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, हम घर में हो या बाहर कार्यालय में हों या दुकान पर, मित्रों-परिचितों के बीच हों अथवा अजनबियों के बीच, व्यवहार करते समय शिष्टाचार बरतना आवश्यक है. यह न हो तो व्यक्ति समाज से कट जाएगा. जीवन साधना के साधक को यह शोभा नहीं देता. उसे जीवन में पूर्णता लानी ही चाहिए और उसके लिए शिष्टाचार को जीवन में समुचित स्थान देना चाहिए.



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