संबोधि
महान सकिंदर भारत आया. उसने एक फकीर के हाथ में एक चमकती हुई चीज देखी. पूछा, क्या है?
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
वह फकीर बोला, बताऊंगा नहीं. यह राज बताने का नहीं है. लेकिन सकिंदर जिद पर अड़ गया. उसने कहा, हार मैंने माननी जीवन में कभी सीखी नहीं. जान कर रहूंगा. तो फकीर ने कहा, एक बात बता सकता हूं कि तुम्हारी सारी धन-दौलत इस छोटी सी चीज के सामने कम वजन की है.
सकिंदर ने तत्क्षण एक बहुत विशाल तराजू बुलाया और लूट का जो भी उसके पास सामान था, हीरे-जवाहरात थे, सोना-चांदी था, सब उस तराजू के एक पलवे पर चढ़ा दिया और उस फकीर ने उस चमकदार छोटी सी चीज को दूसरे पलवे पर रख दिया.
उसके रखते ही फकीर का पलवा नीचे बैठ गया और सकिंदर का पलवा ऊपर उठ गया, ऐसे कि जैसे खाली हो! सकिंदर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया. झुका फकीर के चरणों में और कहा, कुछ भी हो, नतमस्तक हूं. लेकिन राज मुझे कहो. फकीर ने कहा, राज कहना बहुत मुश्किल है. कहा नहीं जा सकता, इसलिए नहीं कह रहा हूं. लेकिन तुम झुके हो, इसलिए एक बात और बताए देता हूं.
एक चुटकी धूल उठाई रास्ते से और उस चमकदार चीज पर डाल दी और न मालूम क्या हुआ कि फकीर का पलवा एकदम हलका हो गया और ऊपर की तरफ उठने लगा. और सकिंदर का पलवा भारी हो आया और नीचे बैठ गया. स्वभावत: सकिंदर तो और भी चकित हुआ. उसने कहा, यह मामला क्या है? तुम पहेलियों को और पहेलियां बना रहे हो. और उलझा रहे हो. सीधी-सादी बात है.
कहना हो कह दो, न कहना हो न कहो. उस फकीर ने कहा, अब कह सकता हूं. अब तुम जिज्ञासा से पूछ रहे हो. अब जोर-जबरदस्ती नहीं है. यह कोई खास चीज नहीं है; मनुष्य की आंख है. धूल पड़ जाए, दो कौड़ी की. धूल हट जाए तो इससे बहुमूल्य और कुछ भी नहीं. सारी पृथ्वी का राज्य भी नहीं, सारी धन-दौलत फीकी है. संबोधि का अर्थ होता है तुम्हारे भीतर की आंख.
और कुछ ज्यादा कठिनाई की बात नहीं है; थोड़ी सी धूल पड़ी है सपनों की धूल. धूल भी सच नहीं. विचारों की धूल. कल्पनाओं की धूल. कामनाओं की धूल. धूल भी कुछ वास्तविक नहीं, धुआं-धुआं है; मगर उस धुएं ने तुम्हारी भीतर की आंख को छिपा लिया है. जैसे बादल आ जाएं और सूरज छिप जाए; बादल छंट जाएं और सूरज प्रकट हो जाए. बस इतना ही अर्थ है संबोधि का: बादल छंट जाएं और सूरज प्रकट हो जाए.
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