स्वतंत्रता

Last Updated 24 Jan 2017 05:06:37 AM IST

व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है नीचे यात्रा करने के लिए भी, ऊपर यात्रा करने के लिए भी.


ओशो (फाइल फोटो)

स्वतंत्रता में सदा ही खतरा भी है. स्वतंत्रता का अर्थ ही होता है, अपने अहित की भी स्वतंत्रता. अगर कोई आपसे कहे कि आप सिर्फ वही करने में स्वतंत्र हैं, जो आपके हित में है; वह करने में आप स्वतंत्र नहीं हैं, जो आपके हित में नहीं है-तो आपकी स्वतंत्रता का कोई भी अर्थ नहीं होगा.

कोई अगर मुझसे कहे कि मैं स्वतंत्र हूं सिर्फ  धर्म करने में और अधर्म करने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं, तो उस स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा; वह परतंत्रता का ही एक रूप है. मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है. और जब भी हम कहते हैं, कोई स्वतंत्र है, तो दोनों दिशाओं की स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाती है-बुरा करने की भी, भला करने की भी. दूसरे के साथ बुरा करने की स्वतंत्रता, अपने साथ बुरा करने की स्वतंत्रता बन जाती है. और दूसरे के साथ भला करने की स्वतंत्रता, अपने साथ भला करने की स्वतंत्रता बन जाती है.

मनुष्य चाहे तो अंतिम नर्क के दुख तक यात्रा कर सकता है; और चाहे-वही मनुष्य, ठीक वही मनुष्य, जो अंतिम नर्क को छूने में समर्थ है-चाहे तो मोक्ष के अंतिम सोपान तक भी यात्रा कर सकता है. ये दोनों दिशाएं खुली हैं. और इसीलिए मनुष्य अपना मित्र भी हो सकता है, और अपना शत्रु भी.

हममें से बहुत कम लोग हैं, जो अपने मित्र होते हैं, अधिक तो अपने शत्रु ही सिद्ध होते हैं क्योंकि हम जो भी करते हैं, उससे अपना ही आत्मघात होता है, और कुछ भी नहीं. किसे हम कहें कि अपना मित्र है? और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है? एक छोटी-सी परिभाषा निर्मिंत की जा सकती है. हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है, तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते.



स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति अपना शत्रु है. निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है. अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं! लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है. हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मिंत करते हैं.

हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं. हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो. यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो. रास्ते को इससे कोई प्रयोजन नहीं है.

ओशो


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