आत्मा-परमात्मा
प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता जरूर होता है। परिवार के वयोवृद्ध मुखिया के हाथ सारी गृहस्थी का नियंत्रण होता है, मिलों-कारखानों की देखरेख के लिए मैनेजर होते हैं, राज्यपाल-प्रांत के शासन की बागडोर संभालते हैं, राष्ट्रपति सम्पूर्ण राष्ट्र का स्वामी होता है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
जिसके हाथ में जैसी विधि-व्यवस्था होती है उसी के अनुरूप उसे अधिकार भी मिले होते हैं। अपराधियों को दण्ड व्यवस्था, सम्पूर्ण प्रजा के पालन-पोषण और न्याय के लिए उन्हें उसी अनुपात से वैधानिक या सैद्धांतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। अधिकार न दिए जाएं तो लोग स्वेच्छाचारिता, छल-कपट और निर्दयता का व्यवहार करने लगें। न्याय व्यवस्था के लिए शक्ति और सत्तावान होना उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है।
इतना बड़ा संसार एक निश्चित व्यवस्था पर ठीक-ठिकाने चल रहा है, सूरज प्रतिदिन ठीक समय से निकल आता है, चंद्रमा की क्या औकात, जो अपनी माहवारी ड्यूटी में रत्ती भर फर्क डाल दे, ऋतुएं अपना समय आते ही आती और लौट जाती हैं, आम का बौर बसन्त में ही आता है, टेसू गर्मी में ही फूलते हैं, वष्रा तभी होती है जब समुद्र से मानसून बनता है। सारी प्रकृति, सम्पूर्ण संसार ठीक व्यवस्था से चल रहा है, जो जरा सा इधर उधर हुए कि उसने मार खाई। जीवन-क्रम में थोड़ी भूल हुई कि रोग-शोक, बीमारी और अकाल-मृत्यु ने झपट्टा मारा।
इतने बड़े संसार का नियामक परमात्मा सचमुच बड़ा शक्तिशाली है। सत्तावान न होता हो कौन उसकी बात सुनता? दण्ड देने में उसने चूक की होती तो अनियमितता, अस्त व्यस्तता और अव्यवस्था ही रही होती। उसकी सृष्टि से कोई भी छुपकर पाप और अत्याचार नहीं कर सकता। बड़ा कठोर है वह, दुष्ट को कभी क्षमा नहीं करता। इसलिए वेद ने आग्रह किया है-
हे मनुष्यों ! बर्फ से आच्छादित पहाड़, नदियां, समुद्र जिसकी महिमा का गुणगान करते हैं। दिशाएं जिसकी भुजायें हैं, हम उस विराट् वि पुरु ष परमात्मा को कभी न भूलें। गीता के ‘येन सर्वविदं ततम’ अर्थात ‘यह जो कुछ है परमात्मा से व्याप्त है’ की विशद व्याख्या करते हुए योगीराज अरविंद ने लिखा है- ‘यह सम्पूर्ण संसार परमात्मा की ही सावरण अभिव्यंजना है। जीव की पूर्णता या मुक्ति और कुछ नहीं भगवान के साथ चेतना, ज्ञान, इच्छा, प्रेम और आध्यात्मिक सुख में एकता प्राप्त करना और भगवती शक्ति के कार्य सम्पादन में अज्ञान, पाप आदि से मुक्त होकर सहयोग देना है।
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