ट्रिपल का ट्रबल

Last Updated 05 Sep 2020 12:46:25 AM IST

स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसे अवसर विरले ही होंगे, जब देश को सामरिक, स्वास्थ्य और आर्थिक मोर्चे पर एक समय में एक साथ लड़ाई लड़नी पड़ी हो।


ट्रिपल का ट्रबल

संभव है कि यह शायद पहला मौका ही हो, जब देश का ऐसे चुनौतीपूर्ण समय से सामना हुआ हो। एक तरफ देश के अंदर कोरोना महामारी और इससे जनित आर्थिक दुारी हर खास-ओ-आम को परेशान कर रही है, तो दूसरी तरफ चालबाज चीन की विस्तारवादी सोच सरहद पर देश की सुरक्षा का इम्तिहान ले रही है। इस लिहाज से सितम्बर का पहला हफ्ता बेहद चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है, जब पहली तिमाही में आर्थिक तरक्की का ग्राफ गोता लगाते हुए सबसे बुरे अंदेशे से भी नीचे चला गया है, तो कोरोना पीड़ितों का ग्राफ हर तर्क और कसौटी को गलत साबित करते हुए रोज नये शिखर को पार कर रहा है। इस सबके बीच सरकार के सख्त रु ख के बावजूद चीन की चालबाजियां बेलगाम जारी हैं।

परस्पर जुड़ीं चुनौतियां
सरसरी तौर पर तीनों चुनौतियां अलग-अलग दिखती हैं, लेकिन हकीकत में सबका सिरा एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। तीनों परिस्थितियों के केंद्र में चीन की प्रत्यक्ष या परोक्ष मौजूदगी है। इसे डिकोड करना कोई मुश्किल काम नहीं है। कोरोना पर पूरी दुनिया में विलेन बना चीन लंबे समय से अपने देशवासियों के बीच छवि सुधारने में लगा है। चीनी सरकार की समझ है कि लद्दाख के मुद्दे पर युद्ध की भावनाएं भड़का कर चीन की जनता का ध्यान भटकाया जा सकता है। इससे शी जिनपिंग के खिलाफ घर में खुलेआम दिख रहे असंतोष पर भी काबू पाया जा सकता है। कोरोना काल में जीडीपी को सकारात्मक दिखाना भी इसी नकारात्मक साजिश का प्रतिफल बताया जा रहा है।

ऐसे में जिनपिंग का एलएसी पर जंग का माहौल बनाना अपने देश में महानायक बनने की महत्त्वाकांक्षा से ज्यादा कुछ नहीं है। यह और बात है कि चीन की हर साजिश का भारत पर्दाफाश भी कर रहा है और करारा जवाब भी दे रहा है। माकूल सैन्य पलटवार के साथ ही भारत चीन के आर्थिक हितों पर भी चोट कर रहा है। कई करार रद्द करने के साथ ही करीब-करीब 250 चीन ऐप पर लगी पाबंदी के बाद चीन की बौखलाहट बता रही है कि मोदी सरकार के तीर बिल्कुल सही निशाने पर लग रहे हैं।  

लेकिन चीन को दर्द देने से ही हमारा मर्ज दूर नहीं हो पाएगा। देश के अंदर चीन से आई कोरोना की चुनौती हर दिन के साथ गहरी होती जा रही है। इस हफ्ते दुनिया में कोरोना के सबसे ज्यादा नये मरीज मिलने के साथ ही भारत में सक्रिय मरीजों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। लगता है हमसे आगे केवल अमेरिका ही रह जाएगा, क्योंकि ब्राजील को हम आने वाले एक-दो दिन में ही पीछे छोड़ देंगे। पूरे एशिया में आधे से ज्यादा कोरोना मरीज भारत में हैं। यह स्थिति पॉजिटिव कतई नहीं है, क्योंकि संक्रमण पर लगाम लगने से ही सक्रिय मरीजों की संख्या पर भी अंकुश लगेगा। वैक्सीन फिलहाल दूर की कौड़ी लग रही है, क्योंकि रूस को छोड़कर दूसरे देशों में वह अब भी ट्रायल की प्रक्रियाओं में ही उलझी हुई है।  

कोरोना के जल्द खात्मे के नहीं संकेत
केंद्र सरकार के संस्थान रोग नियंत्रण केंद्र यानी एनसीडीसी का ताजा शोध भी कोरोना के जल्द खात्मे का कोई संकेत नहीं दे रहा है। एनसीडीसी का कहना है कि कोरोना वायरस से लड़ने वाले एंटीबॉडी पर आंख बंद कर भरोसा करना गलत होगा। दरअसल, कोरोना पीड़ित कई मरीजों की केस स्टडी बता रही है कि एंटीबॉडी का असर सीमित समय तक ही रहता है, इसलिए सावधानी हटते ही दोबारा इसकी चपेट में आने की आशंका बनी रहती है। कई देशों में कोरोना की दूसरी लहर शायद इसी का नतीजा हो। तमाम आशंकाओं के बीच फिलहाल राहत की बात केवल यही दिखती है कि कुल संक्रमित मरीजों की तुलना में भारत में मौत का अनुपात कई देशों से कम है।

मौत के मामले में पीछे रहना यकीनन राहत की बात है, लेकिन अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर पिछड़ना आफत ही कहा जाएगा। भारत की अर्थव्यवस्था में डबल डिजिट का बैक गेयर लग चुका है। ताजा तिमाही की रिपोर्ट है कि जीडीपी ग्रोथ माइनस 23.9 फीसद रही है। अब तक भारत में सिर्फ  दो मौके आए हैं, जब अर्थव्यवस्था नकारात्मक हुई है-पहली बार 1965 में और दूसरी बार 1979 में। मगर तब भी अर्थव्यवस्था ने ऐसा गोता कभी नहीं लगाया था। मांग से लेकर उत्पादन तक में सुस्ती है और अगर अगली तिमाही नहीं सुधरी तो यकीनन देश आधिकारिक रूप से एक अभूतपूर्व मंदी के दौर में चला जाएगा।

क्या यह सिर्फ ‘एक्ट ऑफ गॉड’ है!
इससे पहले देश में जब भी मंदी आई, उसकी जिम्मेदार तीन वजहों में से कोई एक वजह जरूर रही-खराब मॉनसून, कच्चे तेल का महंगा होना या फिर दोनों स्थितियों का एक साथ बनना। 2020 की मंदी का इन परंपरागत कारणों से कोई लेना-देना नहीं है। तो क्या यह सिर्फ  ‘एक्ट ऑफ गॉड’ है, जैसा कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन कह रही हैं? अगर वर्तमान आर्थिक दुर्दशा केवल इसी वजह से होती तो 2015 में 8 फीसद की वृद्धि वाली विकास दर 2019 में 4.2 फीसद के स्तर तक नहीं लुढ़कती। बेशक, जीडीपी के इतने निचले स्तर तक पहुंचने में कोरोना एक वजह जरूर है, लेकिन यह भी हकीकत है कि अर्थव्यवस्था का आकार तो नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद से ही सिमटने लगा था। तिमाही नतीजे ने मोदी सरकार के 20 लाख करोड़ रु पये के स्टिमुलस पैकेज और आत्मनिर्भरता के नारे को भी बेअसर कर दिया है। वास्तव में अगर पैकेज कारगर होता, तो तिमाही का नतीजा इस स्तर तक नकारात्मक नहीं होता। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि पैकेज की रकम का बड़ा हिस्सा पहले ही लागू हो चुका था। नई घोषणा में एमएसएमई सेक्टर के लिए दो लाख करोड़ रुपये की पेशकश को इकोनॉमी के लिए रामबाण बताया गया है लेकिन सच यह है कि यह सेक्टर अब कोई नया लोन लेने की हिम्मत भी हार चुका है।

आर्थिक मोर्चे पर अच्छी खबरें कम
आर्थिक मोर्चे पर अच्छी खबरें कम हैं, लेकिन अच्छाई यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद रहा कृषि सेक्टर अब भी मजबूत बना हुआ है। कोरोना काल में भी देश की कृषि केवल बची ही नहीं रही, बल्कि 3.4 फीसद विकास दर के साथ उसमें ग्रोथ के आसार भी दिख रहे हैं। यह बड़ी बात है, क्योंकि बाकी सभी सेक्टर में विकास दर नकारात्मक है। हालांकि अगस्त महीने का परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स यानी पीएमआई का आंकड़ा जरूर संकेत दे रहा है कि देश में आर्थिक गतिविधियों का विस्तार हो रहा है। जीएसटी कलेक्शन, पेट्रोल की खपत, पीक पावर डिमांड जैसे इंडेक्स भी धीमे सही पर रिकवरी का इशारा कर रहे हैं। तो फिर रिकवरी को रफ्तार देने का रास्ता क्या होना चाहिए?

आर्थिक मामलों के एक्सपर्ट मौजूदा हालात में सरकार को रहीम के दोहे ‘एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय’ से प्रेरणा लेने की सलाह दे रहे हैं। रास्ता है अर्थव्यवस्था को मजबूत करना क्योंकि ऐसा होने से ही बहुत सारी समस्याएं खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगी। बेशक, इस दिशा में काफी काम हुआ है। बैंकों और वित्तीय संस्थानों के जरिए बाजार में वित्तीय तरलता लाने की सरकार की कोशिशें इकोनॉमी के लिए मददगार रही हैं। साथ ही, आरबीआई की रेगुलेटरी पॉलिसी से भी इकोनॉमी को संजीवनी मिली है। लेकिन इतना सब कुछ करने के बाद भी इकोनॉमी की गाड़ी सरकार की उम्मीद के मुताबिक रफ्तार नहीं पकड़ सकी। विशेषज्ञों की राय में यह काम होगा आम लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने से। उनके हाथों में नकदी पहुंचानी होगी। ऐसा करके ही मांग को पैदा किया जा सकता है। एक बार जब मांग बढ़ने लगेगी तो उत्पादन सेक्टर भी संभलने लग जाएगा।

एक और उपाय है जिसे मंदी में कांग्रेस की सरकारें रामबाण की तरह इस्तेमाल करती रही हैं। वह है रु पये छाप लेना। छापे गए रु पयों को गरीबों तक पहुंचा कर आम लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाई जाती है और अर्थव्यवस्था में जान फूंकी जाती है। इस नुस्खे पर एक बार फिर देश चल सकता है बशर्ते पीएम मोदी इस राह पर चलने का फैसला करें।

उपेन्द्र राय


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