बात से ही बनेगी ’बात‘

Last Updated 06 Sep 2020 01:43:13 AM IST

लद्दाख की घाटियों को अब भी उन हवाओं का इंतजार है, जो गलवान में शांति का पैगाम लेकर आए।


बात से ही बनेगी ’बात‘

चार महीने पहले जब एलएसी के इस हिस्से पर विवाद की शुरु आत हुई थी, तब ऐसा लगा नहीं था कि इस बार बात इतनी लंबी और इतनी आगे चली जाएगी। 1962 की लड़ाई के बाद यह पहला मौका है जब गलवान घाटी को लेकर विवाद इतनी दूर तक चला गया है। कई दौर की बातचीत और सैन्य टुकड़ियों की मोर्चाबंदी के बीच हमारी ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सेना अध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणो तक सरहद का दौरा कर आए हैं, लेकिन विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। उल्टे इसको लेकर दुनिया-भर में नये सिरे से गोलबंदी शुरू हो गई है। अब ऐसी खबरें आ रही हैं कि रूस इस विवाद को खत्म करने के लिए पहल कर रहा है। मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के दौरान राजनाथ सिंह से चीन के रक्षामंत्री की मुलाकात रूस की इसी पहल से जुड़ी कड़ी बताई जा रही है।
यह मुलाकात दो घंटे से भी ज्यादा चली तो जाहिर तौर पर इसमें गलवान में दोबारा शांति बहाल करने पर विस्तार से ही बात हुई होगी, लेकिन इसके साथ ही जो बात गौर करने वाली है, वो है मुलाकात से पहले चीन को हमारे रक्षामंत्री से मिली नसीहत। राजनाथ सिंह ने ठीक ही कहा है कि क्षेत्रीय स्थिरता की किसी भी शुरु आत को सफल बनाने के लिए आक्रामक तेवर का खत्म होना जरूरी है। चीन भी इस बात को समझ रहा है कि उसकी हठधर्मिंता से शुरू हुआ अशांति का यह दौर जितना लंबा खिंचेगा, उसे इसका उतना ही बड़ा खमियाजा भुगतना पड़ेगा। नुकसान को लेकर भारत की भी अपनी चिंताएं हैं। चीन और पाकिस्तान से टकराव एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं, बल्कि दो बिल्कुल अलग-अलग सिक्के हैं। इसीलिए पाकिस्तान पर बयानों के हमले में हमारा सरकारी तंत्र भले ही बेलगाम हो जाए, लेकिन चीन पर प्रधानमंत्री के स्तर से भी हुआ पलटवार उसका नाम लिए बगैर किया जाता है। एशिया की दो सबसे बड़ी शक्तियां होने के साथ ही दोनों देश एक-दूसरे के बड़े व्यापारिक और आर्थिक साझेदार भी हैं।

भारत की ओर से तीन चरणों में 200 से ज्यादा ऐप बैन किए जाने पर चीन की बौखलाहट दोनों देशों के बीच बड़ी गहराई से जुड़े आपसी हितों की तस्दीक करती है। 2018-19 के कारोबारी साल में भारत ने केवल कंप्यूटर के 92 फीसद, मोटरसाइकिल के 85 फीसद और टीवी के 82 फीसद पार्ट्स चीन से आयात किए थे। यह तो केवल एक बानगी है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आपसी व्यापार में चीन का निर्यात हमसे चार गुना अधिक है। साल 2019 में ही चीन ने हमें 70.32 बिलियन डॉलर का सामान बेचा, जबकि भारत से उसने केवल 16.75 बिलियन डॉलर की खरीदी की।
ऊपरी तौर पर लगता है कि ऐप के बाद अगर इस निर्यात पर भी बैन की तलवार लटकती है, तो चीन के लिए इस नुकसान की भरपाई आसान नहीं होगी, लेकिन हकीकत थोड़ी अलग है। चीन इतना बड़ा ग्लोबल सप्लायर बन चुका है कि भारत को किया गया निर्यात उसके वैश्विक निर्यात का केवल तीन फीसद है। चीन हमसे कई गुना ज्यादा निर्यात अमेरिका, हांगकांग, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और जर्मनी जैसे देशों को करता है। इसलिए भारत उसके लिए कोई बड़ा बाजार नहीं है और अगर हम उसका सामान लेना बंद भी कर दें तो उसका नुकसान मामूली ही होगा। उल्टा हमारा नुकसान ज्यादा है। एक तो हमें चीन को होने वाले पांच फीसद निर्यात और 14 फीसद आयात से हाथ धोना पड़ेगा, दूसरा चीन के सस्ते उत्पाद खरीदने की लत को बदलकर अमेरिका या दूसरे देशों के महंगे सामान खरीदने की आदत डालनी होगी। ऐसा कम-से-कम तब तक तो करना ही पड़ेगा जब तक हम चीन की तरह मैन्युफैक्चरिंग में आत्मनिर्भर नहीं हो जाते। इसके बावजूद यह तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि दोनों देशों की इकोनॉमी एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि पूरक है।
तो फिर भारत से सीमा विवाद भड़काकर चीन जानबूझकर आग से क्यों खेल रहा है? सवाल का जवाब सीधा नहीं है। इसमें सुपर पावर बनने की जिनिपंग की महत्त्वाकांक्षा से लेकर लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर बढ़ता घरेलू असंतोष और कोरोना के कारण हो रही अतंरराष्ट्रीय किरकिरी से ध्यान भटकाने की कोशिश के साथ ही चीन की विस्तारवादी सोच का घालमेल भी दिखाई देता है। भले ही चीन आज भारत से सदियों पुराने शांतिपूर्वक संबंधों का हवाला दे रहा है, बेशक भारत को भरोसा दिला रहा है कि वो हमारे लिए विस्तारवादी खतरा नहीं है, लेकिन हकीकत क्या है, यह दुनिया के इतिहास और एशिया के भूगोल में दर्ज है। अक्साई चिन से शुरू करें, तो गलवान घाटी के तजुर्बे में कुछ भी नयापन नहीं दिखता। बाकी पड़ोसियों के लिए भी चीन सिरदर्द ही साबित हुआ है। वैसे तो चीन की सीमा 14 देशों से लगती है, लेकिन जमीन और समुद्री सीमाओं पर उसके दावों से 23 देश परेशान हैं। पूर्वी तुर्किस्तान, तिब्बत, मंगोलिया, हांगकांग, मकाऊ और रूस की जमीनी सीमाओं और ताइवान, ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, सिंगापुर, जापान से समुद्री सीमाओं को लेकर चीन का हमेशा विवाद रहा है। भारत के साथ भी चीन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण पड़ोसी नहीं बना है, बल्कि 1951 में तिब्बत को हथिया कर वो भारत के पड़ोस में आ बैठा है। कई रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि पिछले सात दशक में चीन दूसरे देशों की 41 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन हथिया चुका है। यह मौजूदा चीन का 43 फीसद हिस्सा है। मतलब ये कि अपनी हड़प-नीति से चीन ने अपने आकार को लगभग दोगुना कर लिया है।
बहरहाल, गलवान के ताजे मर्ज का इलाज पुराने जख्मों पर नमक छिड़ककर नहीं हो सकेगा, बल्कि इन जख्मों की टीस को सबक बनाने से ही होगा। दोनों पक्षों को यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया भर में जहां भी और जब भी युद्ध हुए हैं, उनका निपटारा जंग के मैदान पर नहीं, बल्कि बातचीत की टेबल पर ही हुआ है। चीन से हमारा सीमा विवाद छह दशक पुराना है और उसका निपटारा भी इस बात को ध्यान में रखकर ही करना होगा। इस लिहाज से रूस में चीनी पक्ष की ओर से बातचीत की पेशकश को किसी एक पक्ष की ताकत कम होने या दूसरे की बढ़ जाने के नजरिये से देखने के बजाय देर से ही सही पर एक सार्थक पहल के तौर पर देखा जाना ज्यादा उचित होगा।

उपेन्द्र राय


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