हिन्दी की पहेली कैसे बने ’सहेली‘?

Last Updated 12 Sep 2020 01:04:25 AM IST

पिछले साल सितम्बर के ही महीने में देश के गृह मंत्री अमित शाह का एक ट्वीट पूरे देश में चर्चा और कुछ राज्यों में चिंता का विषय बना था। मौका हिन्दी दिवस का था और ट्वीट हिन्दी भाषा को लेकर था। इस ट्वीट के साथ ही अमित शाह ने कुछ और ट्वीट भी किए, जिनमें पूरे देश की एक भाषा होने की जरूरत और देश के लोगों से अपनी मातृ भाषा हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने की अपील थी।


हिन्दी की पहेली कैसे बने ’सहेली‘?

इससे एक राष्ट्र, एक भाषा के उस सपने के सच होने के कयास लगने लगे, जिसका जिक्र अपने घोषणा पत्र में करते हुए बीजेपी ने सत्ता में वापसी की थी। एक महीने पहले ही मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा कर अपने घोषणा पत्र का एक और महत्त्वपूर्ण वादा पूरा किया था। लिहाजा, सरकार से अपेक्षाएं आसमान छू रही थीं और अमित शाह के इन ट्वीट के बाद देखते-ही-देखते ट्विटर पर हैशटेग ‘वन लैंग्वेज’ ट्रेंड करने लगा। देश की हिन्दी बेल्ट में इसका जश्न शुरू हुआ तो गैर-हिन्दी राज्यों से विरोध की आवाजें भी सुनाई पड़ीं-खासकर दक्षिण के राज्यों से, जहां बीजेपी के ही कद्दावर नेता और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा कन्नड़ भाषा के समर्थन में ऐसे उतरे कि पारंपरिक रूप से हिन्दी के सबसे मुखर आलोचक राज्य तमिलनाडु का विरोध भी उसके सामने फीका पड़ गया। बहरहाल, कुछ दिनों बाद अमित शाह की ही सफाई से मामला ठंडा पड़ गया। अमित शाह ने स्पष्ट किया कि उनकी मंशा हिन्दी को थोपे जाने की नहीं थी, बल्कि उन्होंने उसे एक भाषा के तौर पर सीखने भर की अपील की थी।

कुछ दिनों पहले ही नई शिक्षा नीति को जारी करने के मौके पर भी सरकार को ऐसी ही सफाई देनी पड़ी थी। बेशक, इस नीति के जरिए देश भर में मातृ भाषा में शिक्षा देने पर अर्थवान चर्चा तो हुई लेकिन दक्षिण के ‘खिलाफत आंदोलन’ से मजबूर सरकार को एक बार फिर ‘हिन्दी को जबरन नहीं थोपे जाने वाली’ सफाई देनी पड़ी।

इन घटनाओं का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि हिन्दी दिवस की तारीख 14 सितम्बर फिर करीब आ चुकी है और सवाल इस बात का है कि क्या हम एक बार इस दिवस को मनाने के आडंबर में हिन्दी के बहाने अपने-अपने नम्बर बढ़ाने का ही काम करेंगे। ऐतिहासिक रूप से तो अपनी मातृ भाषा के लिए यह ‘जिम्मेदारी’ हम साल 1953 से ही निभाते आ रहे हैं, जब राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने पहले-पहले तत्कालीन सरकार से हिन्दी दिवस मनाने का अनुरोध किया था। हिन्दी को उसका यथोचित सम्मान दिलाने के लिए बापू तो इससे 16 साल पहले ही सक्रिय हो गए थे। साल 1937 में वर्धा के ही मारवाड़ी विद्यालय में शिक्षा पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था, जिसमें बापू ने जोर देकर कहा था कि शिक्षा और कौशल निर्माण के लिए मातृ भाषा से मजबूत कोई दूसरा माध्यम नहीं हो सकता। बापू की उस सीख के 83 साल बाद भी हमारी मातृ भाषा राजभाषा और राष्ट्रभाषा के दो-राहे पर खड़ी है।

‘अच्छे दिन’ लाने की कोशिशें
यह हाल तब है जब देश की सरकार की ओर से पिछले करीब 6-7 साल से हिन्दी के ‘अच्छे दिन’ लाने की कई गंभीर कोशिशें हुई हैं और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी के ‘ब्रांड एम्बेसडर’ बनकर मोर्चा संभाला है। प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के साथ ही नरेन्द्र मोदी का वो पण्रकौन भूल सकता है कि विदेशी मेहमान भारत आए या वो खुद विदेश जाएं, उनकी ओर से संवाद की भाषा हिन्दी ही रहेगी। यह प्रतिज्ञा इतनी ईमानदारी से निभाई गई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हों या इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, स्वीडन से लेकर नीदरलैंड तक के राष्ट्रप्रमुख भारत आने या प्रधानमंत्री के उनके देश पहुंचने से पहले हिन्दी में ट्वीट करना नहीं भूलते। वैसे तो प्रधानमंत्री की मातृ भाषा गुजराती है, इसके बावजूद हिन्दी की महिमा का बखान करते हुए वो कई अवसर पर कहते सुने गए हैं कि अगर उन्हें हिन्दी नहीं आती, तो वो सवा सौ करोड़ आबादी वाले इस देश के लोगों से इतने करीब से कभी नहीं जुड़ पाते। ऐसी ‘हिन्दीवादी सरकार’ की सोच का असर यह हुआ है कि आज एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियां भी हिन्दी में निवेश कर रही हैं ताकि लोग अपनी भाषा में तकनीक का इस्तेमाल कर सकें।

भाषा की ‘कश्मीर समस्या’
इसके बावजूद हिन्दी पर झगड़े-सुलह का यह ‘खेल’ आज भी भाषा की ‘कश्मीर समस्या’ बना हुआ है, जहां विवाद सुलझाने की कोई भी पहल विरोध की नई सरहदें खींचने की वजह बन जाती हैं। यह ‘परंपरा’ साल 1965 से चली आ रही है, जब तत्कालीन सरकार ने देश में पहली बार हिन्दी को राजभाषा बनाने की कोशिश की थी। इसकी प्रतिक्रिया में दक्षिण भारत से विरोध की ऐसी चिंगारी उठी थी कि उस साल के गणतंत्र दिवस का आयोजन तक उसके असर से नहीं बच पाया था। इस आंदोलन का चरम ऐसा था कि एक विदेशी भाषा होने के बावजूद अंग्रेजी देश की संपर्क भाषा बनी रही और उसकी जगह हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का फैसला सरकार को वापस लेना पड़ा।
 
दशकों बाद सवाल जस-का-तस है कि आजाद देश में भी हिन्दी की चुनौतियां क्यों बरकरार हैं और क्यों देश की जनता को आज भी अंग्रेजी की गुलामी स्वीकार है? बाजार की वर्चस्ववादी ताकतों का साथ इसका दूसरा पहलू है। लेकिन अंग्रेजी भाषा का संकट केवल हिन्दी को परेशान नहीं करता है, कई क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का दायरा भी इसके असर से सीमित हुआ है। लेकिन असल समस्या शायद कहीं और है। दरअसल, अंग्रेजी के खिलाफ इस ‘युद्ध’ में अंदर-ही-अंदर कई छोटी लड़ाइयां भी चल रही हैं। जब देश में त्रि-भाषा फॉर्मूला अपनाया गया, तो हिन्दीभाषी राज्यों ने तीसरी भाषा के तौर पर किसी क्षेत्रीय भाषा को अपनाने के बजाय संस्कृत को तरजीह देना बेहतर समझा। इस ‘एकतरफा’ दूरी का असर यह हुआ कि हिन्दी क्षेत्रीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए अंग्रेजी से बड़ा खतरा बन गई यह कितना सही है इस पर बहस हो सकती है, लेकिन गैर-हिन्दी राज्यों में इस पर कोई संदेह नहीं दिखता। वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जिस तमिलनाडु के एक प्रमुख राजनीतिक दल की बुनियाद ही हिन्दी विरोध के कारण पड़ी, उसी राज्य के लोग अब इस वजह से हिन्दी सीखना-पढ़ना चाह रहे हैं कि शायद उसके कारण ही उत्तर भारत में उनकी रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाए। बहरहाल, यह अपवाद हो सकता है, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि क्षेत्रीय भाषाओं से गैर वाला भाव धीरे-धीरे हिन्दी से बैर की वजह बनता गया। इस पहेली का सार यह है कि हिन्दी कभी क्षेत्रीय भाषाओं की ‘सहेली’ नहीं बन पाई।

व्यावहारिक बनाया जाना जरूरी
सवाल हिन्दी को व्यावहारिक बनाने का भी है। इसके लिए हिन्दी को सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होने वाली ‘राजभाषा’ के शिकंजे से बाहर निकलकर जन-जन को समझ में आने वाली ‘हिन्दुस्तानी’ बनना पड़ेगा। इसमें सोशल मीडिया वाली हिन्दी, मुंबइया फिल्मों वाली हिन्दी, गंगा-जमुनी तहजीब वाली हिन्दी के साथ ही सरल भाषा में आधुनिक विषयों की तालीम देने वाली हिन्दी को भी शामिल करना होगा। मोटे तौर पर हिन्दी को पारंपरिक और आधुनिक भारत के बीच की कड़ी बनना होगा, जैसा पैदाइश से बंगाली और दिल से हिन्दुस्तानी रहे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इसे बनते देखना चाहते थे।  

इसीलिए हिन्दी की स्वीकार्यता को नए संदभरे में देखे जाने की जरूरत है। कब तक हम देश के मन की बात को दुनिया तक पहुंचाने के लिए एक विदेशी भाषा के आसरे रहेंगे। पिछले कुछ वर्षो में जिस तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी साख तेजी से बढ़ी है, उसके बाद तो एक स्वदेशी राष्ट्रभाषा का होना और जरूरी हो गया है। जब हम एक संविधान, एक विधान, एक ध्वज, एक मुद्रा पर सहमत हो सकते हैं, तो हिन्दी से जुड़े शक-शुबहे दूर कर एक-मन से देश की भाषा पर एक-राय क्यों नहीं बना सकते?                                                     

उपेन्द्र राय


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