भरोसे के खजाने को ’यस‘ कहने की जरूरत

Last Updated 08 Mar 2020 03:11:24 AM IST

देश के बैंकिंग सेक्टर से अच्छी खबर नहीं है। प्राइवेट सेक्टर का चौथा सबसे बड़ा बैंक कहा जाने वाला यस बैंक उसी राह पर है, जिस पर चलकर कुछ दिनों पहले पंजाब और महाराष्ट्र के कोऑपरेटिव बैंक डूब चुके हैं।


भरोसे के खजाने को ’यस‘ कहने की जरूरत

सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने बेशक रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू कर दिया है, लेकिन इन दोनों के अलावा इकोनॉमी के ज्यादातर ‘सर्जन’ यही मान रहे हैं कि ‘मर्ज’ अब इतना फैल चुका है कि कोई चमत्कार ही ‘मरीज’ को बचा सकता है।

रिजर्व बैंक ने यस बैंक के बोर्ड का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है। बैंक की री-स्ट्रक्चरिंग के लिए दस प्वाइंट का प्लान बनाया गया है। एसबीआई बोर्ड ने यस बैंक में 49 फीसद तक की हिस्सेदारी यानी 2,450 करोड़ रु पये के निवेश की सैद्धांतिक मंजूरी दी है। इस फैसले से बैंक का तो पता नहीं, लेकिन खातेदारों का पैसा जरूर डूबने से बच सकता है।

वैसे समय रहते अगर ‘कुछ’ कर लिया गया होता तो 30 दिनों के इस एक्शन प्लान की जरूरत ही नहीं पड़ती। यस बैंक  तो अगस्त 2018 से ही संकट में था, यानी भविष्य के संकेत 20 महीने पहले से मिलने लगे थे। पारिवारिक कलह, संदिग्ध ट्रांजैक्शन और लोन से जुड़ी खामियों की वजह से बैंक के तत्कालीन प्रमुख राणा कपूर को 31 जनवरी, 2019 तक पद छोड़ने को कहा गया था। इसके बाद खबर बाहर आई कि लोन देने में बैंक अपनी जमा-पूंजी की सीमा को बहुत पहले लांघ चुका था। पिछले साल की पहली तिमाही में बैंक को पहली बार घाटा हुआ, जो फिर बढ़ता ही गया।

बैंक के सिर पर चढ़ा एनपीए-जिसकी रिकवरी के चांस शून्य थे-अपना असर दिखाने लगा था। बैड लोन ने बैंक का ‘बैंड’ बजाना शुरू कर दिया। ज्यादा ब्याज के लालच में दिवालिया हो रही कंपनियों को भी लोन देने के लिए यस बैंक ने कभी ‘नो’ नहीं कहा। जो सबको दिख रहा था, वो सच भी साबित हुआ। ज्यादातर कंपनियों ने लोन नहीं चुकाया और बैंक का पैसा फंस गया। ठीक एक साल बाद अगस्त 2019 में बैंक को लेकर मूडीज की घटी हुई रेटिंग ने बैंक में निवेशकों की दिलचस्पी भी घटा दी। बैंक से नकदी लगातार बाहर निकलती गई। डिपोजिट यानी जमा बैंक के लिए ऑक्सीजन का काम करता है और जब वो ही कम होता गया तो यस बैंक भी आईसीयू में पहुंच गया।

बहरहाल थोड़े में ज्यादा कहा जाए तो संकट अब स्पष्ट है और बैंक  के खातेदार पैनिक मोड में हैं। हो भी क्यूं ना? जिनकी जिंदगी भर की जमा-पूंजी छिन जाने का खतरा हो, उनसे कम-से-कम परेशान होने का हक तो नहीं छीना जा सकता है। सवाल यह है कि संकट का जो समाधान पेश किया जा रहा है, उसकी सफलता की क्या गारंटी है? फिलहाल इस पर दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। छह महीने पहले पीएमसी बैंक को भी रिजर्व बैंक ने यही ‘दवा’ पिलाई थी, लेकिन उसकी सांसें उखड़ गई। यस बैंक और उसके खातेदारों के लिए अगले 30 दिन अहम हैं क्योंकि इसी दौरान साफ होगा कि बैंक का मर्जर होगा या टेकओवर, या फिर एक और बैंक टाइटैनिक साबित होगा जिसकी आशंका विपक्ष जता रहा है।

 नए सवाल जुड़ते जाते हैं तो मूल सवाल भी बड़ा होता जाता है। इस मामले में यह सवाल इस लिहाज से भी बड़ा हो जाता है कि आखिर क्यों एक डूब रहे प्राइवेट बैंक को बचाने के लिए देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक को आगे किया जा रहा है। वो भी तब जब यह बैंक खुद भारी-भरकम एनपीए के कारण दबाव में है। सरकार ने इसी 3 मार्च को राज्यसभा में इसकी तस्दीक की है। सदन में पेश रिपोर्ट में बताया गया है कि इस वित्त वर्ष में पांच बड़े सरकारी बैंकों में 1,59,661 करोड़ रुपये का सबसे ज्यादा एनपीए भारतीय स्टेट बैंक यानी एसबीआई पर ही है। फिर क्यों बार-बार बैंकों के संकट में एसबीआई को ही आगे कर दिया जाता है? एसबीआई और एलआईसी कब तक खुद संकट में पड़कर संकटमोचक की भूमिका निभाते रहेंगे? क्या वजह है कि बैंकिंग सेक्टर को रिवाइव करने का कोई भी दांव उससे जुड़े दावे के हिसाब से काम नहीं कर पा रहा है?

बैंकिंग से जुड़ी हर समस्या के लिए पिछली सरकार को जिम्मेदार ठहरा देने से काम नहीं चलेगा। अगर एनपीए का पहाड़ यूपीए की नीतियों से खड़ा हुआ है, तो पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के उस ट्वीट से मुंह चुराना भी मुश्किल है कि पिछले सात साल में एनपीए कम होने के बजाय बढ़ता ही क्यों गया? क्यों बैंकिंग व्यवस्था सुधारने की कवायद से समस्या कम होने की जगह और गंभीर होती गई?

 साल 2014 में सत्ता संभालने के बाद केंद्र सरकार ने सरकारी बैंकों के लिए एक मेगा प्लान तैयार किया। दावा था कि प्रोफेशनल तरीके से काम होगा तो सरकारी बैंकों का हाल भी बदलेगा। प्लान में वरिष्ठ पदों पर चुन-चुन कर सही लोगों को बैठाना था। इसके लिए बैंक बोर्ड बना लेकिन वो दो साल तक पहली मीटिंग ही नहीं कर पाया। इस बीच पंजाब नेशनल बैंक का घोटाला सामने आ गया। फिर सरकार ने एसबीआई में उसके एसोसिएट बैंकों को मर्ज कर दिया। दावा बैंक की सेहत सुधारने का था, लेकिन हुआ क्या? 2017-18 की तीसरी तिमाही में स्टेट बैंक को 17 साल में पहली बार पूरे 2,400 करोड़ रु पये से भी ज्यादा का घाटा हुआ। पिछले साल बैंकिंग रिफॉर्म की तरफ बड़ा कदम उठाते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों का विलय कर 4 बड़े बैंक बनाने का फैसला हुआ था। इस बार भी दावा इकोनॉमी को रफ्तार देने का था। लेकिन देश सुस्ती की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पाया। ठीक उसी समय पीएसयू बैंकों को मुनाफे में लाने के लिए 70,000 करोड़ रु पये का बूस्टर डोज भी दिया गया, मगर एनपीए की दीमक ने इस दावे को भी खोखला कर दिया।

अंदेशा है कि करीब 9.5 लाख करोड़ के एनपीए में फंसे सरकारी बैंकों की हालत और खराब होने वाली है। 31 मार्च को एमएसएमई को लेकर एनपीए पर लगी रोक हटने जा रही है। यानी छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायियों ने जो लोन नहीं लौटाए हैं, अब वो भी एनपीए के खाते में दिखाई देने लगेंगे। मुद्रा लोन के साथ-साथ राज्य बिजली वितरण कंपनियों पर करीब 80 हजार करोड़ और टेलीकॉम सेक्टर पर 92 हजार करोड़ रुपये पहले से बकाया हैं।

इसलिए यस बैंक का मामला भले ही अगले 30 दिन में सुलझ जाए, बैंकिंग से जुड़े सवाल लंबे समय तक पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं। यह कहना कि बैंकिंग सेक्टर के लिए यह समय चुनौतियों से भरा है, शायद समस्या का सरलीकरण होगा। जाहिर है वक्त अब ठोस बदलाव के लिए नई शुरु आत करने का है। क्योंकि इन हालात में सबसे ज्यादा जरूरी उस आम आदमी को राहत पहुंचाना है, जो साख के बार-बार दांव पर लगने के बावजूद आज भी बैंक को अपनी पूंजी का सबसे सुरक्षित ठिकाना मानता है। ऐसे में लोगों के इस भरोसे को यथावत बनाए रखना आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।

उपेन्द्र राय


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