अर्थनीति को अर्थवान बनाने का समय

Last Updated 14 Mar 2020 01:37:50 AM IST

यस बैंक के मामले ने समूचे देश में बैंकिंग व्यवस्था की बड़ी कमजोरियों को बेनकाब किया है। इसने बताया है कि किस तरह से व्यक्तिगत लाभ के लिए बैंक के प्रमोटर जनता की गाढ़ी कमाई की बंदरबांट कर लेते हैं। डूबी हुई कंपनियों को बेहिसाब लोन देते हैं और इसके बदले अपने परिजन के नाम गलत फायदे लेते हैं। राणा कपूर यस बैंक के संस्थापक थे और लंबे समय तक इसके प्रमुख रहे। उनके परिवार के सदस्यों की भी बैंक में खासी हिस्सेदारी रही। फंसे हुए कर्ज को दुनिया की नजर से दूर रखने के लिए ऐसे लोगों का रसूख और पहुंच कारोबारी दुनिया से लेकर शेयर बाजार तक बड़ा काम आता है।


अर्थनीति को अर्थवान बनाने का समय

लेकिन रसूख और पहुंच का पर्दा हटने के बाद पोल खुल रही है कि बैंक ने कर्ज बांटने में जमकर घोटाला किया, कमीशनखोरी में हुई और लापरवाहियों को देख कर भी अनदेखा किया गया। सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आएगी लेकिन इससे यह तो साफ होता है कि यस बैंक के संचालन में बड़ा गड़बड़झाला था। यूबीएस दुनिया की जानी-मानी वित्तीय कंपनी है और भारत में स्विस बैंक के नाम से जानी जाती है। उसने पांच साल पहले ही चेता दिया था कि कमजोर कर्ज का चक्र लंबा चला तो यस बैंक खतरे में आ जाएगा। इसकी वजह यस बैंक की लोन बुक की तेज बढ़ोतरी थी जिसका आधार वो कंपनियां थीं, जो या तो दिवालिया हो चुकी थीं, या फिर तेजी से उस ओर बढ़ रही थीं।

वैसे भी उस समय तक राणा कपूर ऐसे शख्स के तौर पर अपनी पहचान बना चुके थे जो किसी भी कंपनी को कर्ज दे सकता है, बस ब्याज दर कुछ ज्यादा होती थी यानी राणा की प्राथमिकता कर्ज की सुरक्षा से ज्यादा उससे होने वाली कमाई रहती थी। यस बैंक की स्टेटमेंट बताती हैं कि पिछले साल की तिमाही तक यस बैंक करीब चार लाख करोड़ रुपये का कर्ज बांट चुका था और इसमें केवल चार फीसद के बदले ही गारंटी रखी गई थी। जिन्हें बैंक से लोन मिला. उनमें बेशक, उसे लौटाने का सामर्थ्य नहीं था, मगर उन्होंने प्रमोटरों के परिजन को रिश्वत देने का सामर्थ्य दिखलाया। नतीजा हुआ कि लोन अचानक बैड लोन होने लग गए। दिवालिया कंपनियों के लिए यस बैंक से लोन बड़ी राहत जरूर रही, लेकिन इसने बड़ी आफत को भी न्योता दे दिया।

कर्ज की रिकवरी गिरने पर आया ख्याल
जब कर्ज की रिकवरी लगातार गिरने लगी तब बैंक को अपने मुनाफे का ख्याल आया, जिसे और गिरने से बचाने के लिए बैंक ने और बड़ा जोखिम मोल लिया। बैंक प्रबंधन ने अकाउंट में हेरफेर से लेकर बैंकिंग नियमों से छेड़छाड़ तेज कर दी लेकिन तब तक हेराफेरी का घड़ा भर चुका था। बढ़ते एनपीए के कारण मुनाफा कमाने की क्षमता गिरती गई, जिससे बैंक ने निवेशकों और ग्राहकों, दोनों का भरोसा खो दिया। अगस्त, 2018 में 394 रुपये की ऊंचाई देखने वाले शेयर इस महीने की शुरुआत में इकाई के अंकों तक लुढ़क गए।

यह बात भी गौर करने वाली है कि यस बैंक का जो आउटस्टैंडिंग लोन है, वह 2014 में 55,633 करोड़ रुपये था। मार्च, 2019 में यह बढ़कर 2,41,499 करोड़ रुपये हो गया यानी 5 साल में यस बैंक का फंसा हुआ कर्ज चार गुना से भी अधिक बढ़ गया है। इतने कम समय में इस कदर लोन का बढ़ना बड़े घोटाले की ओर संकेत करता है। यह एक अमेरिकी पूंजीवादी की करीब एक सदी पहले कही गई बात को ही मजबूत करता है कि अगर आप बैंक से 100 डॉलर कर्ज लेते हैं और चुका नहीं सकते हैं, तो यह आपकी समस्या है, लेकिन अगर आप 10 करोड़ डॉलर कर्ज लेकर चुका नहीं पाते हैं तो यह समस्या कर्ज देने वाले बैंक की है। यही दरअसल, हमारे बैंकिंग सिस्टम की भी समस्या है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि 2017 से यस बैंक पर नजर थी। अब इस नजर का क्या फायदा अगर खाताधारकों की रकम को लूट से बचाया नहीं जा सके। आज भले ही रिजर्व बैंक पूंजी निवेश के जरिए यस बैंक को उबारने की कोशिश कर रहा हो, भले ही बैंक के शेयर रिकवरी के संकेत दे रहे हों, लेकिन कौन दावा कर सकता है कि निकासी की सीमा पर लगी रोक हटने पर खाताधारक बैंक से अपना पैसा नहीं निकालेंगे और बैंक के साथ आगे भी अपना संबंध रखेंगे। तब तो बैंक को उबारने की सारी कोशिशें फेल हो जाएंगी।

कोरोना की दहशत

यस बैंक के संकट के बीच महामारी का रूप ले चुके कोरोना की दहशत का खासा असर शेयर बाजार पर भी देखने को मिल रहा है। हफ्ते के बीच ऐसा वक्त भी आया जब कारोबार के दौरान सेंसेक्स 3200 अंकों के नुकसान में रहा जबकि निफ्टी में 1000 अंक की गिरावट देखी गई। इतना ही नहीं, अमेरिकी बाजार नेस्डेक में भी 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। अलग-अलग कारणों से गोता लगा रहे शेयर बाजार की इन खबरों के बीच दिलचस्प बात यह है कि बेल आउट पैकेज की खबर मिलने से यस बैंक के शेयरों में उछाल देखा गया। शुक्रवार को भी जब बाजार में कोरोना के कारण लोअर सर्किट लगा तब भी पुनर्गठन प्लान को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद यस बैंक के शेयर बढ़त के साथ कारोबार करते दिखे। इन सबके बीच मुख्य आर्थिक सलाहकार के सुब्रमण्यम ने राहत वाली बात कही है कि भारतीय बैंक रिस्क झेलने के लिए काफी मजबूत हैं। तर्क दिया कि वैश्विक तौर पर बैंकों का कैपिटल टू रिस्क असेट रेशियो 8 फीसदी है, जबकि भारत में बैंकों के लिए सीएआरआर 14.3 पर्सेंट के करीब है। इस तरह भारतीय बैंकों के पास ग्लोबल पैमानों पर 80 पर्सेंट ज्यादा जोखिम उठाने की क्षमता है। सवाल है कि जोखिम उठाने की जरूरत क्यों है?

पिछले दो साल में बैंकों को आपस में मिलाने से सरकारी बैंक 27 से घटकर 12 रह गए हैं। इसको लेकर सरकार के तमाम दावों में से एक दावा यह भी रहा है कि इससे कर्ज की तुलना में बैंकों की स्थिति पहले से मजबूत होगी। विडंबना यह है कि सरकार अगली पीढ़ी का बैंक तैयार करने की कोशिश कर रही है, जबकि फिलहाल जरूरत अभी की चुनौतियों से बाहर निकलने की है। इस समय बैंकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती एनपीए की है जो साल-दर-साल बढ़ते-बढ़ते अब नौ लाख करोड़ के पार पहुंच गया है। बैंकों के विलय का फायदा दिखने में कम-से-कम दो साल का समय लग सकता है और तब तक ‘दिन दोगुनी, रात चौगुनी’ तरक्की कर रहा यह एनपीए कहां तक पहुंच जाएगा, यह कोई नहीं जानता। बढ़ते एनपीए का मतलब होगा बैंकों के लोन देने की क्षमता का घटना, मुनाफे में कमी और नकदी का प्रवाह रुकना जो बैंकों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के लिए भी खराब संकेत है।

फौरी कदम उठाने जरूरी
बैंकिंग सिस्टम की चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ फौरी कदम उठाने की जरूरत है। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि लोन बैंकों के लिए ऑक्सीजन का काम करते हैं। अपनी कमाई बढ़ाने के लिए लोन देना बैंकों के लिए मजबूरी ही नहीं, जरूरी भी है। कोशिश होनी चाहिए कि कर्ज लेने वाले की साख कितनी भी बड़ी हो, उसे बड़ा कर्ज देने और वसूलने की प्रक्रिया में नियमों की अनदेखी न हो क्योंकि बड़े कर्ज अटकने पर पहले बैंक लटकते हैं और फिर अर्थव्यवस्था भटकती है। हमारे बैंकों को लाभ बढ़ाने और जोखिम घटाने के लिए ज्यादा प्रोफेशनल होने की जरूरत है। ग्राहकों की ज्यादा से ज्यादा जानकारियां निकालने के लिए नेटवर्किंग को भी बेहतर करने की जरूरत है। इन तमाम बदलावों के लिए उन देशों से सबक लिया जा सकता है जहां बैंकिंग सिस्टम की साख आज भी बेदाग है। इस मामले में अमेरिका हमारे लिए बेहतर मिसाल साबित हो सकता है, जहां कैश घोटाले नहीं, बल्कि केवल फेक अकाउंट बनाने पर ही 5,300 कर्मचारी बर्खास्त कर दिए जाते हैं और बैंक के सीईओ से इस्तीफा मांग लिया गया था। अमेरिका के सबसे बड़े बैंक वेल्स फार्गो का यह मामला साल 2016 का है जब कर्मचारियों ने बैंक से मिले टारगेट को पूरा करने के लिए 20 लाख से ज्यादा फर्जी अकाउंट बनाए और गलत तरीके से क्रेडिट-डेबिट कार्ड बांटे। हैरानी की बात यह रही कि घोटाला पांच साल तक चलता रहा, लेकिन फेक अकाउंट से न तो कोई लेन-देन हुआ, न ही कर्मचारियों ने अकाउंट बनाकर कोई पैसे कमाए। इसके बावजूद पूरे बैंक को भारी जुर्माने के साथ सख्त सजा मिली।



एक के बाद बैंक घोटाले देख रहे देश को इस तरह का एक्शन दूर की कौड़ी लग सकता है। लोक सभा में सरकार भी कबूल कर चुकी है कि इस साल भी पहली छमाही में वित्तीय संस्थानों में 1,13,374 करोड़ रुपये का फ्रॉड हुआ यानी बैंकों पर नजर रहने वाली संस्था कहीं-न-कहीं चूक कर रही है। खासकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की लापरवाही छुपाए नहीं छिप रही। विजय माल्या ने 13 बैंकों को 9,432 करोड़ रुपये का चूना लगाया जो बैंक अधिकारियों की मिलीभगत के बगैर नहीं हो सकता। इसी तरह पीएनबी में 11,400 करोड़ का घोटाला हुआ। बैंक की जिस ब्रांच से नीरव मोदी घोटाले करता रहा, उसका कई साल तक ऑडिट ही नहीं हुआ था। यहां भी फौरी तौर पर आरबीआई जिम्मेदार नजर आती है। आगे पीएमसी बैंक, आईएलएफएंडएस, इलाहाबाद बैंक घोटाला, रोटोमैक पेन घोटाला भी सामने आया। किसी भी मामले में किसी दोषी की गर्दन नहीं पकड़ी जा सकी। यस बैंक के ताजा मामले में भी जो कार्रवाइयां हुई हैं, उनसे ऐसा कोई विश्वास नहीं जगता कि आगे से ऐसे घोटाले नहीं होंगे। फिर भी, छापेमारियां हो रही हैं, केस दर्ज किए जा रहे हैं और जांच की प्रक्रिया तेज गति से हो रही हो तो लोगों में इंसाफ की उम्मीद तो जगती ही है।

उपेन्द्र राय


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