’उपचार‘ को देश में उदाहरण बनाएं

Last Updated 01 Mar 2020 12:42:41 AM IST

दंगे और हिंसा रुकने के बाद दिल वालों की दिल्ली भले ही दोबारा पटरी पर लौटती दिख रही है, लेकिन अब भी कई ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढ़े बिना आगे का सफर आसान नहीं दिख रहा है।


’उपचार‘ को देश में उदाहरण बनाएं

तमाम सवालों में सबसे बड़ा सवाल आम दिल्लीवासी की सुरक्षा का है। दुर्भाग्य से हालिया हादसे में दर्जनों जिंदगियों का ही नहीं, इस भरोसे का भी कत्ल हुआ है। देश की राजधानी होने के नाते यह सवाल और भी बड़ा हो जाता है; क्योंकि हालात ऐसे समय में बेकाबू हुए जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत दौरे पर थे और सुरक्षा इंतजामों को लेकर ‘परिंदा भी पर न मार सके’ वाले दावे किए जा रहे थे।

ये चूक इसलिए भी बहुत बड़ी है क्योंकि राजधानी में दिल्ली पुलिस ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय खुफिया एजेंसियों से भी इनपुट मिलते हैं। फिर भी इतनी बड़ी तादाद में लोग इकट्ठे होते गए और खुफिया तंत्र को भनक तक नहीं लगी। अगर पहले से ही खुफिया जानकारी होती तो अतिरिक्त पुलिस फोर्स तैनात करके हालात को बिगड़ने से पहले काबू में किया जा सकता था। जिस आंदोलन को इस हिंसा के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है, वह भी अचानक रातों-रात खड़ा नहीं हुआ। दिल्ली में अलग-अलग जगहों पर ये आंदोलन लंबे समय से चल रहे थे। शाहीन बाग के धरना-प्रदर्शन को तो दो महीने से भी ज्यादा का वक्त बीत चुका है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जहां दंगे भड़के, वहां के जाफराबाद में भी आंदोलनकारी दो दिन पहले धरने पर बैठे थे, लेकिन पुलिस कार्रवाई के बाद हटा दिए गए थे। इसके बावजूद आसपास के इलाकों में हजारों की तादाद में भीड़ जुट गई और उन्हें रोकने के लिए समय पर पर्याप्त पुलिस फोर्स भी नहीं पहुंची। पुलिस न जाने किस अदृश्य शक्ति से आदेश के इंतजार में हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रही,जबकि कमिश्नर सिस्टम में अफसरों पर इसकी कोई बंदिश नहीं होती। मौके पर मौजूद जिम्मेदार अधिकारी भी उपद्रवियों के खिलाफ एक्शन के लिए फैसले ले सकते थे। पुलिस के पास वैसे भी धारा-144 से लेकर कर्फ्यू लागू करने जैसे कई अधिकार होते हैं।

सवाल तो इस बात पर भी उठ रहे हैं कि जब बात-बात पर इंटरनेट बंद कर दिया जाता हो, तो इतने बड़े उपद्रव के दौरान इसे अनदेखा क्यों किया गया? यही सवाल रैपिड एक्शन फोर्स को ‘एक्शन’ से दूर रखने को लेकर भी है। दंगाग्रस्त इलाकों से तबाही का सामान जिस बड़ी तादाद में बरामद हो रहा है, वह साफ इशारा है कि उपद्रवी लंबे समय से दिल्ली को दहलाने की तैयारी कर रहे थे। दिल्ली में दंगाइयों के मॉड्यूल से अब दूसरे शहरों की पुलिस को भी अलर्ट हो जाना चाहिए, क्योंकि सीएए और एनआरसी के विरोध में देश में कई जगह आंदोलन चल रहे हैं और कौन यह दावा कर सकता है कि जो दिल्ली में हुआ उसे दूसरी जगह नहीं दोहराया जाएगा। खतरा इस लिहाज से बढ़ा है कि जब पुलिसिंग में देश का सबसे हाईटेक सिस्टम दंगाइयों के सामने फेल हो गया, तो बाकी जगहों की सुरक्षा की गारंटी कौन दे सकता है?

आम पब्लिक को तो छोड़िए, पुलिस और खुफिया एजेंसियां अपने ही जवानों की गारंटी लेने की हालत में नहीं दिखतीं; क्योंकि अगर सुरक्षा तंत्र तंदुरुस्त होता तो दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल और आईबी के कर्मचारी को अपनी जान क्यों गंवानी पड़ती? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिक्योरिटी सिस्टम से जुड़े लोग जब किसी खतरे से लोहा लेते हुए जान गंवाते हैं, तो इससे पूरे फोर्स का मनोबल प्रभावित होता है। वैसे भी तीस हजारी कोर्ट में वकीलों के हमले और जेएनयू-जामिया यूनिर्वसटिी में कार्रवाई पर किरकिरी के बाद दिल्ली पुलिस का जोश कितना ‘हाई’ होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है।

शुरु आती जांच में इसके भी संकेत मिल रहे हैं कि हिंसा फैलाने के लिए उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में लोग दिल्ली आए थे। उत्तर प्रदेश से सटे दिल्ली के बॉर्डर को संभवत: इस वजह से भी सील किया गया था। पुलिस को ऐसे इनपुट मिले हैं कि उप्र में कुछ खास व्हाट्सअप ग्रुप सक्रिय थे, जो नफरत भरे भाषणों, अफवाह और हमलों की योजना बना रहे थे और हिंसा के दौरान उन्मादी मैसेज और वीडियो शेयर कर रहे थे।  हकीकत क्या है ये तो पुलिस की तफ्तीश से ही सामने आएगा, लेकिन अगर यह आशंका सच साबित होती है तो यह पूरे देश के लिए खतरे की घंटी है। सुरक्षाबलों को इसे किसी टेरर अटैक की चुनौती की तरह ही लेना होगा। हिंसा के बाद जिस तरह का खौफ पसरा है, समाज का अमन-चैन टूटा है और पुलिस से लोगों का भरोसा हिला है। ये हालात आतंकी हमले के बाद के सूरते-हाल से मेल खाते हैं।

सड़क से लेकर अदालत तक इस हिंसा को लेकर 1984 के सिख विरोधी दंगों का भी बार-बार जिक्र आ रहा है। हालांकि कई समानताओं के बावजूद दोनों की तुलना तर्कसंगत नहीं लगती। उस वक्त दंगा किसी खास इलाके में नहीं, बल्कि दिल्ली समेत पूरे देश में भड़का था। तब आग में घी डालने वाला सोशल मीडिया नहीं था, इसके बावजूद हिंसा इतने बड़े स्तर पर हुई थी कि मौत का आंकड़ा 3,000 के पार पहुंच गया था। तब न तो पुलिस के पास आज की तरह दंगे रोकने में मददगार हाईटेक तकनीक थी और न ही दंगाइयों पर काबू पा सकने वाले अत्याधुनिक हथियार। यह जरूर है कि तब भी आज ही की तरह भड़काऊ भाषणों और बयानबाजियों की कोई कमी नहीं थी, कानून-व्यवस्था ताक पर रख दी गई थी और पुलिस की सुस्ती पर कई सवाल उठे थे। तब भी पीड़ितों को अदालत की चौखट से ही इंसाफ मिला। इस बार भी शासन-प्रशासन को आइना दिखाने का काम अदालत को करना पड़ रहा है। दिल्ली हाईकोर्ट ने नेताओं के भड़काऊ बयानों पर एफ़आईआर न करने, सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हिंसा के वीडियो की जांच नहीं करने और फौरी कदम नहीं उठाने पर दिल्ली पुलिस को जमकर लताड़ लगाई है।

वैसे हकीकत तो यह भी है कि दिल्ली पुलिस को ऐसे हालात से निपटने का ज्यादा अनुभव भी नहीं है। 84 के दंगों से आगे बढ़ें तो कानून-व्यवस्था के लिहाज से मंडल आयोग, लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा और बाबरी ढांचा गिराने पर हुई हिंसा बीते तीन दशकों की सबसे बड़ी घटनाएं रही हैं और इन तीनों मौकों पर दिल्ली में वैसी हिंसा नहीं हुई थी जैसी इस बार हुई है। ये बातें उस पुलिस के लिए अफसोसजनक ही कही जाएंगी जिसके आतंक विरोधी यूनिट की स्पेशल सेल बीते एक साल में 11 आतंकी हमलों की साजिशों को नाकाम कर चुकी है। उसके ऑपरेशंस की धाक दिल्ली से लेकर जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर और नेपाल बॉर्डर तक है, लेकिन इस बार कहानी पलट गई है। दिल्ली में जो हुआ उसकी गूंज अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुनाई दे रही है और जिन ट्रंप की भारत में मौजूदगी के दौरान ये सब कुछ हुआ, उन्हीं के अमेरिका में भारत पर सवाल उठ रहे हैं। जाहिर है, इस बार दांव पर साख केवल पुलिस की ही नहीं, बल्कि सरकार की भी लगी है। बेशक ये हमारा आंतरिक मामला हो, लेकिन केवल इतने भर से सरकार की जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाएगी। दिल्ली देश का दिल है और जिस तरह दिल को लगा जख्म पूरे शरीर को दर्द देता है, उसी तरह दिल्ली पर लगी चोट पूरे देश की पीड़ा बढ़ाती है। इसलिए सरकार को तमाम उपलब्ध संसाधनों को साथ लाकर दिल्ली में सुरक्षा और भरोसा बहाल करने की ऐसी ठोस योजना तैयार करनी होगी, जो आने वाले समय में पूरे देश के सामने मिसाल बन सके।

उपेन्द्र राय


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