हर हाल में रोके जाएं ऐसे हिंसक उन्माद

Last Updated 29 Feb 2020 12:46:47 AM IST

आखिर ऐसा क्या हो गया कि एक समाज दो हिस्सों में बंट गया, रातों-रात दिल्ली दंगों की आग में झुलस गई, तीन दिन की हिंसा तीन दर्जन से ज्यादा जिंदगियों को लील गई? सीएए और एनआरसी के समर्थन और विरोध को लेकर देश भर में चल रहे प्रदशर्नों को इस हादसे की बुनियाद बताना तर्कसंगत नहीं लगता। ये प्रदर्शन तो दो महीने से ज्यादा समय से चल रहे हैं, और इक्की-दुक्की घटनाओं को छोड़कर कमोबेश शांतिपूर्ण ही रहे हैं।


हर हाल में रोके जाएं हिंसक उन्माद

भारत के सामाजिक और राजनीतिक प्रबोधन में अक्सर इस बात का जिक्र आता है कि लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है। हिंसा की आलोचना करने में भी कोई पीछे नहीं रहना चाहता। बापू के देश में वैसे भी इस मान्यता पर कोई अचरज नहीं होना चाहिए। आजाद देश में किसी भी हिस्से से हिंसा यकीनन आलोचना का विषय होना चाहिए, लेकिन जब वह हिस्सा देश की राजधानी का ही हो, तब तो अवसर केवल दूसरों पर उंगली उठाने का नहीं, बल्कि खुद के अंदर झांकने का भी हो जाता है। ऐसा इसलिए भी कि जिन पर कहर बरपा वे तो हमारे अपने हैं ही, जिन्होंने हैवानियत दिखाई वे भी हमारे समाज से हैं।

फिर आखिर ऐसा क्या हो गया कि एक समाज दो हिस्सों में बंट गया, रातों-रात दिल्ली दंगों की आग में झुलस गई, तीन दिन की हिंसा 38 जिंदगियों को लील गई? सीएए और एनआरसी के समर्थन और विरोध को लेकर देश भर में चल रहे प्रदर्शनों को इस हादसे की बुनियाद बताना तर्कसंगत नहीं लगता। ये प्रदर्शन तो दो महीने से ज्यादा समय से चल रहे हैं, और इक्की-दुक्की घटनाओं को छोड़कर कमोबेश शांतिपूर्ण ही रहे हैं। आम धारणा है कि इन प्रदर्शनों को लेकर समाज में गुस्से का बारूद तो पहले से जमा था, इसमें चिंगारी लगाने की जो कसर बाकी थी, वह राजनीतिक दलों के नेताओं की भड़काऊ बयानबाजी ने पूरी कर दी।  हिंसा का गुबार थमने के बाद अब जो तस्वीर सामने आ रही है, वह दिल्ली के गुनहगारों की भयावह करतूतों को सामने ला रही है। अफसोस यह है कि जनता के जिन नुमाइंदों को लोगों को दंगाइयों से बचाने का जिम्मा निभाना था, वही लोगों को दंगाइयों के हवाले करने का काम कर रहे थे। दंगे भड़काने के लिए जहां देश की सरकार चला रही बीजेपी से जुड़े कुछ जनप्रतिनिधि सवालों के घेरे में हैं, तो दंगाइयों को कथित तौर पर असलहा-बारूद ‘सप्लाई’ करने से लेकर हत्या के आरोप में दिल्ली की सत्ता में बैठी आम आदमी पार्टी के एक पाषर्द भी कठघरे में हैं। वहीं, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के कुछ नेताओं पर अनर्गल बयानबाजी के जरिए लोगों को उकसाने के आरोप भी लग रहे हैं।  

लोकतंत्र को शर्मसार करने वाले इन ‘कारनामे’ में जो सक्रियता सियासी नेताओं ने दिखाई, दरअसल उसे रोकने की जांबाजी दिल्ली पुलिस को दिखानी थी, लेकिन वह हैरतअंगेज तरीके से ‘खामोश’ रही। जब सियासत से लेकर अदालत ने खाकी की खबर लेनी शुरू की, तब भी बवाल रोकने के बजाय पुलिस अपनी बेचारगी का रोना रोती ही दिखी। सफाई दी गई कि उसका बड़ा अमला अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ड्यूटी बजा रहा था, इसलिए दंगाइयों से निपटने का राष्ट्रधर्म पीछे छूट गया। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में पुलिस बल की संख्या लगभग 85 हजार है, जिसमें से 10 हजार पुलिसकर्मी अलग से वीवीआईपी और वीआईपी सुरक्षा में तैनात रहते हैं यानी दिल्ली पुलिस की तादाद 75 हजार आसपास है। अब सवाल है कि इतनी संख्या तथा देश में मौजूद पुलिसिंग की सबसे आधुनिक तकनीक, नेटवर्क और दूसरी बेहतरीन सुविधाओं से लैस होने के बावजूद दिल्ली पुलिस अगर शहर के महज एक हिस्से तक को महफूज नहीं रख सकती तो जरूरत पड़ने पर पूरी दिल्ली को सुरक्षित कैसे रखेगी? पुलिस की इसी ‘बेचारगी’ से नाराज हाई कोर्ट के न्यायाधीश को टिप्पणी करनी पड़ी कि वह किसी सूरत में दिल्ली में दोबारा 1984 के हालात बनने नहीं दे सकते। दिल्ली पुलिस पर आरोप लगते हैं कि 84 के सिख दंगों में उसकी निष्क्रियता के कारण ही बड़े पैमाने पर सिखों का नरसंहार हुआ था।

पुलिस को फटकार
फटकार दिल्ली पुलिस को पड़ी, तो सवालों के घेरे में देश के गृह मंत्रालय को आना ही था, वह आया भी। कांग्रेस ने तुरंत मुद्दा लपका और राष्ट्रपति को राजधर्म का तकाजा देकर गृह मंत्री के इस्तीफे की मांग कर दी। हालांकि बेहतर तो यह होता कि कांग्रेस इस चुनौती से निकलने का कोई रास्ता भी सरकार को सुझाती। बदले में बीजेपी का कांग्रेस को 1984 के दंगों की याद दिलाना भी हमले का संजीदा जवाब नहीं दिखता। सरकार देश के किसी भी हिस्से में अशांति की जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। हां, उसका यह सवाल जरूर गौर करने लायक हो सकता है कि जब देश में अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा हो रहा था, तब दिल्ली में दंगे भड़कना कोई साजिश तो नहीं है? लेकिन यहां भी सवाल के बदले सवाल ही उठेगा कि अगर कोई साजिश है भी, तो सरकार उसका पर्दाफाश क्यों नहीं करती? 

दंगों की जांच के बीच दिल्ली पुलिस को फटकार लगाने और भड़काऊ बयानबाजी करने वाले नेताओं पर एफआईआर का निर्देश देने वाले दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस मुरलीधर का पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में तबादला भी सियासी सवालों का सबब बना है। कांग्रेस इस तबादले की टाइमिंग को आधार बनाकर फैसले को शर्मनाक बता रही है, तो सरकार इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की अनुशंसा को बुनियाद बता रही है।

इस सियासी घमासान के बीच यह जानकारी भी अहम है कि हेट स्पीच पर कार्रवाई को लेकर एक बार फिर विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट लागू कराने की मांग सामने आई है। इसके लिए बृहस्पतिवार को सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर हुई है। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ही विधि आयोग से नफरत फैलाने वाले भाषणों और बयानों को परिभाषित करने को कहा था। इसके तीन साल बाद 2017 में विधि आयोग ने सरकार को यह रिपोर्ट सौंप दी थी। वैसे, दंगों पर सरकार बेशक गंभीर है, और यह गंभीरता इस बात से भी दिखती है कि हालात का जायजा लेने के लिए एनएसए अजित डोवल खुद सड़कों पर उतरे। कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद भी डोवल ने लोगों में भरोसा बहाल करने का यह तरीका अपनाया था। वैसे नौकरशाहों के इस तरह अवाम के बीच जाने से यह सवाल भी उठ सकता है कि क्या जनप्रतिनिधि अब जनता के भरोसे के काबिल नहीं रहे?

मोदी की अपील
बहरहाल, राहत की बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शांति की अपील और दिल्ली पुलिस के देर से ही सही, एक्शन में आने से हालात तेजी से पटरी पर लौटने लगे हैं। 136 दंगाइयों के सलाखों के पीछे पहुंचने और 48 केस दर्ज होने से उन लोगों के हौसले जरूर पस्त हुए होंगे जो अभी भी दिल्ली में नफरत की आग फैलाने का मंसूबा पालते रहे हैं। दो एसआईटी बनाने का फैसला भी इस मायने में वाजिब दिखता है कि इससे गुनहगारों की पहचान और जांच का काम तेजी से होगा। वैसे एक और काम है, जो सरकार के साथ-साथ हमें-आपको भी बड़ी तेजी से करना होगा। इसकी जिम्मेदारी कोई और नहीं, बल्कि बापू हम लोगों पर छोड़ गए हैं। यह प्रसंग 1920 में ‘यंग इंडिया’ में लिखा बापू का एक लेख है। इस लेख का शीषर्क था-लोकशाही बनाम भीड़शाही। दिलचस्प बात यह है कि बापू ने इस लेख में जिन हालात का वर्णन किया है, सौ साल बाद आज भी देश में कमोबेश वैसे ही हालात दिखाई देते हैं। बापू ने तब लिखा था कि आज भारत बड़ी तेजी से भीड़शाही की अवस्था से गुजर रहा है, और दुर्भाग्य से ऐसा भी हो सकता है कि हमें इस अवस्था से बहुत धीरे-धीरे छुटकारा मिले। बदलाव की सुस्त रफ्तार के बावजूद बुद्धिमानी इसी में होगी कि हम जल्द-से-जल्द इससे छुटकारा पाने के उपायों का सहारा लें।


 
हिंसा और दंगे भी लोकशाही पर भीड़शाही के हावी होने के नतीजा ही होते हैं, और वाकई बुद्धिमानी इसी में होगी कि बापू की सीख पर चलकर इससे जल्द छुटकारा पाने की हर कोशिश को आगे बढ़कर सहारा दिया जाए।

उपेन्द्र राय


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