विरोध से क्यों भर गया यह ‘रजिस्टर’?

Last Updated 24 Nov 2019 12:16:27 AM IST

हिन्दुस्तान ऐसा देश है, जहां शहरी जीवन अलग है, ग्रामीण परिवेश अलग है, कस्बाई इलाकों की मिश्रित जीवन शैली अलग है।


विरोध से क्यों भर गया यह ‘रजिस्टर’?

गांव में हर व्यक्ति दूसरे को नाम से जानता है, पारिवारिक इतिहास भी पता होता है, लेकिन यहां संघर्ष जीविकोपार्जन करने वाली जमीन से शुरू होता है। ताकतवर वही कहलाता है जो जमीन हासिल करता है। ठीक ऐसे ही कस्बाई इलाकों में ग्रामीण परिवेश की मिलनसार भावना पलती है, लेकिन पहनावा अर्ध शहरी होता है, और संघर्ष क्षेत्रों में बंट जाता है। यह क्षेत्र मोहल्ले या फिर इलाके होते हैं, जिन्हें लोग अपनी जागीर समझते हैं। छोटे शहरों में संघर्ष जीविकोपार्जन का है, और ताकतवर वही कहलाता है, जिसके पास धन है। वहीं बड़े शहरों में जिंदगी जीना ही एक संघर्ष है, और सारी ताकत धन उपार्जन में ही लगती है। इसलिए न तो लोग अपनी कॉलोनी के लोगों को जान पाते हैं, न पड़ोसियों को। 

अब जरा सोचिए कि जब एक बड़े शहर में हम अपनी कॉलोनी या मोहल्ले के लोगों को ही पूरी तरह से नहीं जानते हैं, तो राज्य और देश जैसे विशाल भू-भाग में परिचय के मानचित्र का आकार कितना बड़ा होगा? सवाल इसलिए गंभीर है, क्योंकि मानसिकता और प्रवृत्ति के खतरे के साथ अवसरों का नाश भी इसमें जुड़ा है। किसी को देखकर उसके अतीत का आकलन नहीं किया जा सकता। लेकिन आकलन और व्यक्तिगत अतीत की जानकारी के साथ अवसरों का भविष्य देने का एक जरिया राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी ‘एनआरसी’ बन गया है। एनआरसी हमारी उन आशंकाओं को दूर करेगा जिनसे हमें खतरा महसूस होता है। खतरे का तात्पर्य सिर्फ  अपराध से नहीं है, बल्कि अवसर और विकास के साथ राजनीतिक फायदा उठाने के दुस्साहस से है। देश के गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य सभा में एनआरसी के मुद्दे पर किए गए प्रश्न पर अपने उत्तर से जो वैचारिक रास्ता दिखाया है, वह यकीनन स्वागत योग्य है, क्योंकि यह न तो किसी धर्म पर केंद्रित होगा, न ही भेदभाव को जन्म देगा, सिर्फ नागरिकता सिद्ध करेगा। गैर-कानूनी रूप से हिंदुस्तान में दाखिल हुए लोगों को चिह्नित करेगा।
लेकिन सवाल है कि एनआरसी का विरोध क्यों हो रहा है? इसका जवाब पश्चिम बंगाल की भूमि से आता है। दरअसल, असम में लागू हुए एनआरसी के दूसरे और अंतिम मसौदे ने सियासी संकट का खाका खींचा था। एनआरसी में आवेदन देने वाले 3.29 करोड़ लोगों में से 2.89 करोड़ लोग ही शामिल थे। 40-41 लाख लोगों के नाम गायब थे जिन्हें ट्रिब्यूनल में जाने के लिए समय भी मिला, लेकिन प. बंगाल की सियासत में इन्हीं नदारद नामों से हंगामा मच गया। इसका कारण यह है कि प. बंगाल और बांग्लादेश की दो हजार किमी. लंबी सीमा से हिंदुस्तान को बांग्लादेश से जोड़ने वाले दो हजार से ज्यादा रास्ते हैं, जहां से भाषा और जीवन शैली की समानता का फायदा उठाकर हिंदुस्तान में दाखिला आसान है। ऐसी स्थिति में प्रवासी प. बंगाल में अपनी हिंदुस्तानी पहचान बनाते हैं, खास तौर पर सियासी दलों को फायदा पहुंचाने वाले राशन कार्ड या वोटर आई कार्ड आसानी से बन जाते हैं। इससे देश के नागरिकों को कई नुकसान हैं, लेकिन राजनीतिक लाभ कमाने वाले अपने पक्ष में गैर-कानूनी प्रवासियों को भी स्वीकार करते हैं, इसलिए ऐसे लोगों की पहचान से घबराते हैं, और विरोध के स्वर बुलंद करते हैं। देश की संप्रभुता के लिए गैर-कानूनी प्रवासी हमेशा से बड़ा खतरा हैं क्योंकि इनका कोई ट्रैक रिकॉर्ड हिन्दुस्तान में नहीं होता। ये देश के खिलाफ साजिश या आपराधिक गतिविधि को पूरा करके आसानी से हिन्दुस्तान छोड़कर वापस लौट सकते हैं। असली नागरिकों के अवसरों को भी इनसे खतरा है क्योंकि इन्हें नागरिकता की अभिलाषा नहीं, बल्कि अवसर की लालसा होती है। इन्हें जो अवसर मिलता है, उस पर पूरा हक देश के नागरिक का है, इसलिए ये क्षेत्रीय पृष्ठभूमि पर संघर्ष का अलग कारण बनते हैं। संघर्ष नागरिक होने की प्रमाणिकता सिद्ध करने से उपजता है, लेकिन इसके पीछे की हकीकत में राजनीतिक लाभ का तमाशायी मंसूबा पलता है। कई राजनीतिक दल इस पर खुलकर नहीं बोलते, बल्कि इसे धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश जरूर करते हैं, जिससे एक नया संघर्ष शुरू होता है। 

एनआरसी की जरूरत को लेकर एक प्रश्न देश की संप्रभुता के खतरे पर अपनी पकड़ मजबूत बनाता है। लेकिन इसके जवाब के लिए इतिहास के पन्ने पलटने पड़ते हैं। भारत में असम इकलौता राज्य है जहां एनआरसी बनाया जा रहा है, और पहले भी बना है। 1905 में बंगाल विभाजन में पूर्वी बंगाल और असम नये प्रांत बने थे। लेकिन जब देश का बंटवारा हुआ, तब असम के भारत से अलग होने का डर सताने लगा। असम में विद्रोह हुआ, सिलहट पूर्वी पाकिस्तान में चला गया और असम 1950 में भारत का राज्य बन गया। 1951 में पहली बार असम में ही एनआरसी बना। 50 के दशक में बाहरी लोगों का असम आना सियासी मुद्दा बनने लगा था। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बाद के बांग्लादेश से लोगों का अवैध तरीके से असम में आने का सिलसिला जारी रहा। भाषा विवाद से शुरू हुए संघर्ष में हालात और ज्यादा खराब हो गए। पूर्वी पाकिस्तान में हिंसक हालात की वजह से हिंदू और मुस्लिम तबके की बड़ी आबादी भारत पहुंची थी। इसके बाद 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में पाक सेना की कार्रवाई की वजह से बांग्लादेश की सीमा पार कर करीब 10 लाख लोग असम पहुंचे थे। उस वक्त भी शरणार्थियों को वापस भेजने की योजना थी, लेकिन इसी बीच बांग्लादेश आजाद हो गया। कई प्रवासी खुद लौट गए लेकिन बड़ी आबादी असम में ही रुक गई। तत्कालीन सरकार की कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण भारतीय नागरिकों के अवसर छिनते चले गए। लेकिन अब यह राजनीतिक इच्छाशक्ति लौटती दिख रही है, जिससे देश की संप्रभुता पर खड़ा खतरा भी खत्म होगा और लोगों को अवसर भी वापस मिलेंगे।

भारत में एनआरसी अब पूरे देश में लागू किया जाएगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि ऐसे कई देश हैं, जिनके टूटने या विभाजन के बाद इसी तरह की व्यवस्था तुरंत की गई थी। इससे एक फायदा यह हुआ कि देश की संप्रभुता के लिए खड़ा हुआ खतरा खत्म हो गया, वहीं अवसर भी मिलने लगे। 1876 में अफ्रीका का विभाजन हुआ था, लेकिन उस समय हर उपनिवेशों ने अपनी सीमा के अंदर सिटीजन सूची तैयार करवाई थी। अमेरिका में भी ऐसी व्यवस्था बनाई जा चुकी है, अमेरिका 1776 में आजाद हुआ था लेकिन नेशनल सिटीजन रजिस्टर बनाने की घोषणा 20वीं सदी की शुरु आत में राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट के शासनकाल में हुई। उन्होंने अमेरिका के हालात सुधारने के लिए प्रवासियों को अपने देश लौट जाने को कहा था, ऐसा न करने वालों को बंदी भी बनाया था, ताकि अवसर अमेरिकी नागरिकों को ही मिल सकें। मौजूदा दौर में भी कई देश इस व्यवस्था पर काम कर रहे हैं, भारत भी उनमें से एक है, लेकिन यहां विरोध की धारा अलग है, व्यवस्था बनाने के नजरिए को देखने का पैमाना अलग है।

उपेन्द्र राय


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