वर्तमान तय करेगा बीजेपी का भविष्य

Last Updated 02 Nov 2019 10:41:41 AM IST

वैसे तो सियासत में अश्वमेध जैसा कोई यज्ञ नहीं होता, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी पिछले करीब छह साल से चुनावी जीत के जिस अश्व पर सवार है, वो एक-दो अपवादों को छोड़कर किसी के रोके नहीं रुका है।


साल 2014 के आम चुनाव से शुरू इस सिलसिले में बीजेपी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में चुनावी राजनीति की बड़ी बाजीगर साबित हुई है। ब्रांड मोदी की राजनीति के आगे विपक्ष पूरी तरह नतमस्तक दिखाई दिया है। ऐसी मान्यता है कि विपक्ष जब तक बीजेपी की पिछली जीत को डिकोड कर पाता है, तब तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भविष्य की जीत का ताना-बाना बुन चुके होते हैं।

इस ताने-बाने में बेशक कई ऐसे सवाल भी उलझे जिनका जवाब तलाशना न तो देश ने जरूरी समझा, न बीजेपी ने। लेकिन बीते सप्ताह आए महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने कुछ ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं, जिन्हें खारिज करना बीजेपी के लिए उतना ही मुश्किल हो रहा है, जितना उन सवालों का सामना करना।

सवाल उठ रहे हैं कि साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को भावनात्मक अंक गणित से फेल करने वाली बीजेपी के ग्रेड कार्ड में गिरावट क्यों आई? क्या हरियाणा और महाराष्ट्र में सक्सेस का फॉर्मूला नाकाम हो गया? और अगर ऐसा हुआ है तो क्या सत्ता का भविष्य बीजेपी के लिए ऑरेंज अलर्ट जारी कर रहा है?

यह सभी प्रश्न हरियाणा और महाराष्ट्र के हाल ही के चुनावी नतीजों पर मुंह बाये खड़े हैं। इन नतीजों के बावजूद बीजेपी दोनों राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब जरूर होती है लेकिन सवालों की गंभीरता भविष्य के खतरे को और ज्यादा बढ़ाती है। अब प्रश्न यह भी है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी अपने गढ़ कायम रख सकेगी? क्या नई कामयाबी के लिए नई रणनीति पार्टी को विस्तार देगी? इन सवालों की अहमियत इसलिए भी है, क्योंकि इसी साल बीजेपी को झारखंड के चुनावी मैदान में उतरना है, फिर अगले साल का आरंभ दिल्ली से करना है और अंत बिहार की वैचारिक भूमि पर। हालात बीजेपी के कितने अनुकूल होंगे यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन विश्लेषण वर्तमान की जमीन से ही होगा।

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में पार्टी का नेतृत्व दो ऐसे चेहरे कर रहे थे, जिन पर भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं हैं बावजूद इसके बीजेपी पिछली बार की अपेक्षा इस बार कम सीट ही जीत सकी। सहयोगी दल भी उतना बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सके। इसके कुछ मुख्य कारण हैं- जिनमें पहला है ज़मीनी स्तर पर ओवर कॉन्फिडेंस। बीजेपी ने पस्त विपक्ष को देखकर अपनी जीत तय मान ली थी लेकिन मतदाताओं ने अति आत्मविश्वास को आईना दिखा दिया। इसके अलावा क्षेत्रीय मुद्दों पर मोदी ब्रांड का असर भी उतना वज़नदार नहीं रहा, क्योंकि दोनों राज्यों के मुख्य चेहरे देवेन्द्र फडणवीस और मनोहर लाल खट्टर थे और यह ऐसे चेहरे हैं जिन्हें 2014 के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के तौर पर पहचान मिली, मतदाताओं के वोट 2014 में बीजेपी को मोदी के चेहरे पर मिले थे। इसके अलावा राज्य सरकारों के खिलाफ़ लोगों की नाराज़गी मुद्दे में तब्दील हुई, जबकि राष्ट्रवाद, अनुच्छेद 370, एनआरसी, चंद्रयान-2 और पाकिस्तान के मुद्दे राज्य और स्थानीय मुद्दों के सामने बेहद बौने साबित हुए। दोनों राज्यों में एक और अहम मुद्दा था जो तकरीबन 2004 के शाइनिंग इंडिया की याद ताज़ा कर रहा था। हरियाणा में करीब दर्जन भर आईएनएलडी के विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे, बीएसपी, अकाली दल और निर्दलीय विधायकों को भी बीजेपी ने पार्टी में शामिल कर टिकट दिया था लेकिन इनमें से ज़्यादातर नेता चुनाव हार गए। ऐसे ही महाराष्ट्र में करीब 35 नेताओं ने कांग्रेस-एनसीपी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया था लेकिन जनता ने इनमें से 19 को सिरे से नकार दिया। नतीज़ा ये हुआ कि महाराष्ट्र में जिस बीजेपी के 122 विधायक थे वो 105 पर सिमट गई और हरियाणा में जो 47 का आंकड़ा था वो 40 में बदल गया। हालांकि ये फॉर्मूला यूपी और उत्तराखंड के चुनाव में बेहद कामयाब था।

अब बीजेपी के सामने अतीत से सबक लेकर भविष्य की तरफ बढ़ने की चुनौती है। इसी साल के आखिर में झारखंड में चुनाव होने हैं। लेकिन एक बड़ा फैक्टर यहां भी राज्य में पार्टी का चेहरा हो सकता है। महाराष्ट्र और हरियाणा की ही तरह झारखंड के सीएम रघुवर दास पर करप्शन का कोई आरोप नहीं है लेकिन यह चेहरा भी चुनाव के बाद लाइम लाइट में आया था, 2014 में झारखंड में मोदी ब्रांड का प्रभाव ज़्यादा था। अब मुमकिन है कि बीजेपी दो राज्यों में झटका खाने के बाद ब्रांड फेस वैल्यू का नया तोड़ ढूंढेगी। हालांकि बीजेपी झारखंड में 65 प्लस का लक्ष्य लेकर चल रही है लेकिन झारखंड और महाराष्ट्र के नतीजों से इस लक्ष्य की तस्वीर थोड़ी धुंधली पड़ती नजर आती है।

झारखंड के बाद बीजेपी को नए साल की शुरुआत दिल्ली के चुनावी मैदान में उतरकर करनी है। ज़ाहिर तौर पर दिल्ली में हरियाणा के नतीज़ों का थोड़ा प्रभाव जरूर पड़ेगा। हालांकि दिल्ली में राष्ट्रवाद, अनुच्छेद 370, एनआरसी और पाकिस्तान जैसे मुद्दों से बीजेपी की स्थिति में सुधार हो सकता है लेकिन आम आदमी पार्टी की पानी, बिजली की फ्री सप्लाई पॉलिटिक्स और मोहल्ला क्लीनिक जैसे मुद्दे चुनावी तापमान को बढ़ा सकते हैं। लिहाजा बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दे का तोड़ केंद्र सरकार का अवैध कॉलोनियों को वैध करने का दांव हो सकता है। मुमकिन ये भी है कि दिल्ली के चुनाव में बीजेपी किसी भी चेहरे को क्षेत्रीय आधार पर तवज्जो न दे, इस स्थिति में पीएम मोदी की ब्रांड फेस वैल्यू को भुनाया जा सकता है।

बीजेपी और तमाम दलों के लिए साल 2020 का अंत बिहार चुनाव से होगा लेकिन यह भी तय है कि वहां का समीकरण बीजेपी के लिए ज्यादा पेचीदा होगा। 2016 के चुनाव में बीजेपी को हालांकि बिहार की जनता ने नकारा नहीं था लेकिन पूरा विश्वास भी नहीं जताया था। जेडीयू और आरजेडी ने मिलकर चुनावी मैदान में दम दिखाया था, नीतीश का सुशासन वाला चेहरा और लालू प्रसाद यादव की मास लीडर वाली छवि का गहरा प्रभाव था लेकिन बीच में ही गठबंधन टूटा और नीतीश को बीजेपी का सहारा मिल गया। नीतीश कुमार के उस कदम को अब तक बिहार के मतदाता नहीं भूल सके हैं जिसने जनता की नज़रों से उन्हें उतार दिया था। इसलिए मुमकिन है कि बिहार की चुनावी राजनीति में भले ही हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीज़ों का असर न दिखे लेकिन नीतीश के अवसरवादी फैक्टर का प्रभाव जरूर पड़ सकता है। अगर बीजेपी गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरती है तो हालात महाराष्ट्र की तरह हो सकते हैं, और अगर गठबंधन के बावजूद सीएम फेस वैल्यू में शामिल न हो, तो राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभाव पीएम मोदी के चेहरे के साथ बीजेपी को फायदा पहुंचा सकता है। हालांकि इन परिस्थितियों में भी विपक्ष मज़बूत हो सकता है, खास तौर पर गठबंधन के रूप कामयाबी का फॉर्मूला विपक्षी दलों के लिए बेहतर संकेत होंगे।

दो राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने बीजेपी को आत्ममंथन पर जरूर मजबूर किया है लेकिन इन हालातों के बावज़ूद मौजूदा समय से भविष्य तक बीजेपी के हालात में ज़्यादा परिवर्तन नजर नहीं आता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भविष्य के चुनाव में ब्रांड के तौर पर दिखते हैं, रणनीति में बदलाव के साथ बीजेपी भी बेहतर स्थिति में नज़र आती है, राष्ट्रीय मुद्दों को क्षेत्रीय स्तर पर भी तवज्जो मिलती है लेकिन इनमें सरकारी हितकारी योजनाओं का समावेश जरूरी है। विपक्ष के मुद्दों के जवाब तलाशना वक्त की मांग है। हालांकि ये दीगर बात है कि परिस्थिति और समय के अनुसार मतदाता के मन में किस मुद्दे का बीज पनपेगा इसकी पहचान इतनी आसानी से नहीं होगी।

उपेन्द्र राय


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