जीत की ’शान‘, कितनी आसान?

Last Updated 27 Oct 2019 12:10:09 AM IST

देश की राजनीति में ऐसे मौका कम ही देखने को मिलते हैं, जब कोई राजनीतिक दल सत्ता में वापसी कर रहा हो और जीत के जश्न के बजाय प्रश्न उसकी जीत के घटे अंतर पर ज्यादा उठ रहे हो।


जीत की ’शान‘, कितनी आसान?

महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद देश में ठीक ऐसा ही हो रहा है। दोनों राज्यों में बीजेपी सरकारें वापसी करने में कामयाब हुई हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ी बीजेपी ने 288 में से 161 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल किया है, जबकि हरियाणा में 40 सीटें जीतकर बीजेपी जेजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने की तैयारी में है। इसके बावजूद चर्चा पक्ष और विपक्ष के बीच जीत का अंतर कम होने पर ज्यादा हो रही है।

दरअसल, इसकी वजह है देश की सियासत के बदले हुए हालात। चुनावी जंग में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी से देश के मतदाताओं की उम्मीदें नई ऊंचाइयों तक पहुंच चुकी हैं। पांच साल पहले दोनों राज्यों के पिछले विधानसभा चुनाव हों या पांच महीने पहले के लोक सभा चुनाव, बीजेपी का प्रदर्शन जबर्दस्त रहा था। विधानसभा चुनावों में बीजेपी को दोनों राज्यों में अपने दम पर बहुमत मिला था, जबकि लोक सभा चुनाव में उसने हरियाणा की सभी 10 और महाराष्ट्र की 48 में से 41 सीटें जीती थीं। इसलिए इस बार जब बीजेपी के कदम उस ऊंचाई तक पहुंचने से पहले ठिठक गए, तो आलोचक हो या समर्थक, मीडिया हो या मतदाता, पूरा का पूरा देश इसकी वजह जानने के लिए उत्सुक हो उठा।

वैसे देश में बड़े पैमाने पर ऐसी मान्यता है कि दोनों राज्यों में प्रधानमंत्री मोदी का ही जादू चला जिसकी वजह से ही बीजेपी सरकार बनाने की हालत में पहुंच पाई। लोक सभा की तरह ही विधानसभा चुनाव में भी ये संदेश गया कि प्रधानमंत्री मोदी को मज़बूत करना है और उन्हें वोट दिया जाना चाहिए। चुनावी नतीजों का विश्लेषण बताता है कि जमीनी हकीकत को पहचानने में स्थानीय स्तर पर बीजेपी से चूक हुई है। नतीजे बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के लिए सकारात्मक रवैया रखने वाले मतदाता को अगर बीजेपी की राज्य सरकारों से कोई शिकायत है तो वह उसे जाहिर करने में पीछे नहीं रहने वाले।

नतीजे आने के बाद बीजेपी मुख्यालय पर कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन में इस बात का इशारा भी दिखा। खासकर हरियाणा के संदर्भ में उन्होंने कहा कि पांच साल में थोड़ी सत्ता विरोधी लहर होती है, फिर भी पिछली बार की तुलना में तीन फीसद वोट शेयर बढ़ना बड़ी बात है। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की भी तारीफ की और भरोसा दिलाया कि दोनों राज्यों में बनने वाली पार्टी की सरकारें पहले से भी बेहतर काम करेंगी।

दरअसल, प्रधानमंत्री की ये बात ही बीजेपी के लिए सबक भी है और आने वाले चुनावों की चुनौतियों से निपटने की कुंजी भी है। बीजेपी को ये समझना होगा कि भारत जैसे विशाल देश में हर मर्ज की एक दवा नहीं हो सकती। कोई पार्टी सिर्फ  राष्ट्रवाद की बात करके लोगों का दिल नहीं जीत सकती, बल्कि उसे  क्षेत्रीय विकास और स्थानीय स्तर के मुद्दों पर भी बात करनी होगी।

नतीजे दिखाते हैं कि बेशक मतदाताओं ने अनुच्छेद 370, 35ए और पाकिस्तान पर आक्रामक रुख को पूरी तरह खारिज नहीं किया, लेकिन स्थानीय समस्याओं से जुड़े सवालों का जवाब नहीं मिलने से मतदान को प्रभावित जरूर कर किया। महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों और शहरी गरीबों के बीच गठबंधन के वोट शेयर में गिरावट इस बात की पुष्टि करते हैं। पिछली बार उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास और शौचालय जैसी जनकल्याण से जुड़ी योजनाएं और रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी समस्याओं के निदान से मतदाताओं ने बीजेपी को जोरदार समर्थन दिया था। लेकिन इस बार प्रचार में राष्ट्रीय मुद्दों को ज्यादा तरजीह मिलने से वही मतदाता खुद को पार्टी से कनेक्ट नहीं कर पाया। इसका असर चुनाव नतीजों पर साफ तौर पर दिखा।


महाराष्ट्र में तो खासतौर पर किसानों की आत्महत्या, बंद होते उद्योग, बेरोजगारी और आर्थिक सुस्ती जैसे मुद्दों का असर भी देखने को मिला। बीजेपी की रणनीति यह रही कि केवल मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस राज्य के विकास के मुद़्दे की बात करेंगे, जबकि राष्ट्रीय नेता राष्ट्रीय मुद्दों की बात करेंगे। लेकिन ये रणनीति भी स्थानीय स्तर के गुस्से को थाम नहीं सकी और फडणवीस सरकार के आठ मंत्रियों को इसकी कीमत हार से चुकानी पड़ी।

हरियाणा में भी देश के औसत से ज्यादा बेरोजगारी, महंगाई, जनता के छोटे-छोटे कामों में बेवजह देरी और कर्मचारी वर्ग की नाराजगी को खट्टर सरकार समय रहते दूर नहीं कर पाई। राज्य सरकार के खिलाफ एंटी इन्कमबेंसी का पता इस बात से भी चलता है कि खट्टर सरकार के सात मंत्रियों को हार झेलनी पड़ी और केवल दो मंत्री ही जीत की दहलीज पार कर पाए। यहां तक कि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला भी अपना किला बचा नहीं पाए।

इस चुनाव में बागियों को मनाना भी बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर साबित हुआ। बीजेपी के चुनावी इतिहास में संभवत: ये पहला मौका होगा जब उसके अपने नेता इतने बड़े पैमाने पर पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवारों के सामने डटे रहे। हरियाणा में बीजेपी के पांच बागी चुनाव जीतकर खट्टर सरकार और बहुमत के बीच आ गए। महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना के केवल चार बागी चुनाव जीत पाए, लेकिन बागियों की वजह से गठबंधन को 25 सीटों पर हार झेलनी पड़ी। अकेले बीजेपी के 83 और शिवसेना के 86 बागियों ने जीत के समीकरण को प्रभावित किया।

ये नतीजे इसलिए भी चौंकाते हैं कि इस बार मैदान में प्रमुख विपक्षी दल नतीजे आने से पहले हार स्वीकार करने की मनोदशा में जा चुके थे। दोनों राज्यों में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस थी, जिसके पास चुनाव जीतने की न तो कोई नीति थी, न ही कोई ठोस चुनावी रणनीति। इसके बावजूद वह दोनों राज्यों में फायदे में रही। जाहिर है इन नतीजों से दिशाहीन हो चुकी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को लड़ने का नया उत्साह मिलेगा जिससे निबटने के लिए बीजेपी नेतृत्व को दोबारा नए सिरे से जमावट करनी होगी।

इन चुनावों से ये बात भी दोबारा स्थापित हुई है कि राज्यों के चुनाव में क्षेत्रीय दलों को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। महाराष्ट्र में एनसीपी जैसे क्षेत्रीय दल की साख बढ़ना और हरियाणा में जेजेपी का किंगमेकर की दौड़ में आना इस बात का उदाहरण है। लोक सभा की प्रचंड विजय के बाद राज्यों में अपने विस्तार में जुटी बीजेपी के लिए इस चुनौती को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा, क्योंकि आने वाले साल में जिन 8 बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां दबदबा क्षेत्रीय पार्टियों का ही है। दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और तमिलनाडु ऐसे ही राज्य हैं, जहां इस चुनौती से पार पाने के लिए बीजेपी को अभी से कमर कसनी होगी।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment