मानसून : पोल खुलती शहर की
ध्यान दें जहां भी जल भराव हो रहा है, वहां अधिकांश स्थान वे हैं, जहां के नदी-तालाब पर समाज ने कब्जा कर रखा है।
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असल में पानी को लेकर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण रही है-हमें पढ़ा दिया गया कि नदी, नहर, तालाब झील आदि पानी के स्रोत हैं, हकीकत में हमारे देश में पानी का स्रेत केवल मानसून है, नदी-दरिया आदि तो उसको सहेजने के स्थान मात्र हैं। मानसून की नियामत सहेजने के स्थान पर हमने खुद उन्हें उजाड़ दिया। मानसून विदा होते ही उन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारा-मारी होगी।
हम जानते हैं कि हमारे लोक जीवन, अर्थव्यवस्था, पर्व-त्योहार का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता है। कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। जो महानगर-शहर पूरे साल वायु प्रदूषण के कारण हलकान रहते हैं, इसी मौसम में वहां के लोगों को सांस लेने को साफ हवा मिलती है। खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर हैं। इसके बावजूद जब प्रकृति अपना आशीष इन बूंदों के रूप में देती है, तो समाज और सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश में मानसून का सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है-कारण हैं-तेज पलायन और गांवों का शहरीकरण।
भारतीय मानसून का संबंध मुख्यतया गरमी के दिनों में होने वाले वायुमंडलीय परिसंचरण में परिवर्तन से है। गरमी की शुरुआत होने से सूर्य उत्तरायण हो जाता है। सूर्य के उत्तरायण होने के साथ-साथ अंत:उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र भी उत्तरायण होना प्रारंभ हो जाता है। इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में प्रवाहित होने लगती है। इस तरह तापमान बढ़ने से निम्न वायु दाब निर्मिंत होता है। दक्षिण में हिन्द महासागर में मेडागास्कर द्वीप के समीप उच्च वायु दाब का विकास होता है, इसी उच्च वायु दाब के केंद्र से दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है।
जान लें कि तापमान बढ़ने के कारण एशिया पर न्यून वायु दाब बन जाता है। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्ध में शीतकाल के कारण दक्षिण हिन्द महासागर तथा उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पास उच्च दाब विकसित हो जाता है। परिणामस्वरूप उच्च दाब वाले क्षेत्रों से अर्थात महासागरीय भागों से निम्न दाब वाले स्थलीय भागों की ओर हवाएं चलने लगती हैं। सागरों के ऊपर से आने के कारण नमी से लदी ये हवाएं पर्याप्त वृष्टि प्रदान करती हैं।
जब निम्न दाब का क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है तो दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवा भी भूमध्य रेखा को पार करके मानसूनी हवाओं से मिल जाती है। इसे दक्षिण-पश्चिमी मानसून अथवा भारतीय मानसून भी कहा जाता है। इस प्रकार एशिया में मानसून की दो शाखाएं हो जाती हैं-भारत में भी दक्षिण-पश्चिम मानसून की दो शाखाएं हो जाती हैं-बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की शाखा। जलवायु परिवर्तन का गहरा असर भारत में दिखने लगा है, इसके साथ ही ठंड के दिनों में अल नीनो और दीगर मौसम में ला नीना का असर हमारे मानसून-तंत्र को प्रभावित कर रहा है।
विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं, लेकिन मानसून से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ा अटकाते हैं जबकि मानसून को सहेजने वाली नदियों में पानी सुरक्षित रखने की बनिस्बत रेत निकालने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। हम भूल जाते हैं कि नदी की अपनी याददाश्त होती है, वह दो सौ साल तक अपने इलाके को भूलती नहीं। गौर से देखें तो आज जिन इलाकों में नदी से तबाही पर विलाप हो रहा है, वे सभी किसी नदी के बीते दो सदी के रास्ते में यह सोच कर बसा लिए गए कि अब तो नदी दूसरे रास्ते बह रही है, खाली जगह पर बस्ती बसा ली जाए।
दूर क्यों जाएं, दिल्ली में ही अक्षरधाम मंदिर से ले कर खेल गांव तक को लें, अदालती दस्तावेज में खुरपेंच कर यमुना के जल ग्रहण क्षेत्र में बसा लिए गए। दिल्ली के पुराने खादर में बीते पांच दशक में ओखला-जामिया नगर से ले कर गीता कालोनी, बुराड़ी जैसी घनी कॉलोनियां बस गई और अब सरकार यमुना का पानी अपने घर में रोकने के लिए खादर को बसाने की बात कर रही है। बिहार राज्य में ही उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां आती थीं जो संख्या आज घट कर बमुश्किल 600 रह गई है।
असल में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति न तो गंभीर हैं, और न ही कुछ नया सीखना चाहते हैं। पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है जबकि सर्वविविदत तथ्य यह है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है। हर घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना का सफल क्रियान्वयन मानसून को सम्मान देने से ही संभव होगा।
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