उत्तराखंड में आपदा : बेतरतीब निर्माण है वजह

Last Updated 07 Aug 2025 03:42:46 PM IST

भगवान भोले नाथ का गुस्सा प्रतीक रूप में मौत के तांडव नृत्य में फूटता है। देवभूमि उत्तराखंड में शिव के इस तांडव नृत्य का सिलसिला केदारनाथ में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के बाद से अभी भी जारी है।


उत्तरकाशी जिले की खीर गंगा नदी और धराली में बादल फटने और र्हसलि के तेलगाड़ नाले में बाढ़ आने से बड़ी तबाही हुई है। धराली में 50 से ज्यादा घर, 30 होटल और 30 होमस्टे मलबे में बदल गए। जो खीर नदी 10 मी. चौड़ी थी, वह जल प्रवाह से 39 मी. चौड़ी हो गई। अतएव जो भी सामने पड़ा उसे लीलती चली गई। प्रशासन चार लोगों की मौत और 100 से अधिक लोगों के लापता होना बता रहा है। लेकिन हिमालय के बीचोंबीच बसे खूबसूरत धराली गांव में सैलाब जैसे नीचे उतरते  दिखा, उससे लगता है कि मौतें कहीं अधिक हुई हैं। पल्रय इतनी तीव्रता से आई कि उसकी कान के पर्दे फाड़ देने वाली गर्जना सुनने के बाद लोगों को बचने का समय ही नहीं मिल पाया।

बादल फटना अनायास जरूर है, लेकिन ये करीब 10 किमी. व्यास की परिधि में फटने के बाद अति वृष्टि का कारण बनते हैं। 10 सेंमी. या उससे अधिक बारिश को बादल फटने की घटना के रूप में पारिभाषित किया जाता है। बादल फटने की घटना के दौरान किसी एक स्थान पर एक घंटे के भीतर उस क्षेत्र में होने वाली औसत वार्षिक वष्रा की 10 प्रतिशत से अधिक बारिश हो जाती है। मौसम विभाग वर्षा का पूर्वानुमान कई दिन या माह पहले लगा लेता है, लेकिन मौसम विज्ञानी बादल फटने जैसी बारिश का अनुमान नहीं लगा पाते।

समृद्धि, उन्नति और वैज्ञानिक उपलब्धियों का चरम छू लेने के बावजूद प्रकृति का प्रकोप धरा के किस हिस्से के गर्भ से फूट पड़ेगा या आसमान से टूट पड़ेगा, यह जानने में हम अक्षम हैं। भूकंप की तो भनक भी नहीं लगती। जाहिर है, इसे रोकने का एक ही उपाय है कि विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी न करें। ध्यान रखें कि अंतत: हमारी वर्तमान अर्थव्यस्था का मजबूत आधार अटूट प्राकृतिक संपदा और खेती ही हैं। लेकिन उत्तराखंड हो या प्राकृतिक संपदा से भरपूर अन्य प्रदेश उद्योगपतियों की लॉबी जीडीपी और विकास दर के नाम पर पर्यावरण संबंधी कठोर नीतियों को लचीला बना कर अपने हित साधने में लगी हैं। विकास का लॉलीपॉप प्रकृति से खिलवाड़ का कारण बन गया है। 

उत्तराखंड, उप्र से विभाजित होकर 9 नवम्बर, 2000 को अस्तिव में आया था। तेरह जिलों में बंटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 11 लाख है। 80 फीसद साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किमी. में फैला हुआ है। उत्तराखंड में भागीरथी, अलकनंदा, गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नदियों के उद्गम स्थल हैं। इन नदियों के उद्गम स्थलों और किनारों पर पुराणों में दर्ज अनेक धार्मिंक-सास्ंकृतिक स्थल हैं। इसलिए इस भूभाग को धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। यहां के वनाच्छादित पहाड़ अनूठी जैव- विविधता के पर्याय हैं। तय है कि उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं का खजाना है। इसी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई है, जिसकी वजह से पल्रय जैसे प्रकोप बार-बार इस देवभूमि में बर्बादी की आपदा बरसा रहे हैं।

उत्तराखंड की तबाही की इबारत टिहरी में गंगा नदी पर बने बड़े बांध के निर्माण के साथ ही लिख दी गई थी। बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थितिकी तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सड़कों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। अब यही काम रेल पथ के लिए सुरंगें बनाने में सामने आ रहा है। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नदियों और हिमालयी झीलों में ढहा दिया जाता है। नतीजतन, नदियों का तल मलबे से भर गए हैं। परिणामस्वरूप इनकी जल ग्रहण क्षमता नष्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। अतएव जब भी तेज बारिश आती है तो तुरंत बाढ़ में बदल कर विनाशलीला में तब्दील हो जाती है।

बादल फटने के केदारनाथ और अब धराली जैसे परिणाम निकलते हैं। उत्तरकाशी, जोशीमठ में तो निरंतर बाढ़ और भू-स्खलन देखने में आ रहे हैं, इस क्षेत्र के सैकड़ों मकानों में भूमि धसकने से बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं। भू-स्खलन के अलावा इन दरारों की वजह कालिंदी और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन जल विद्युत और रेल परियोजनाएं भी हैं। उत्तराखंड जब स्वंतत्र राज्य नहीं बना था, तब इस देवभूमि क्षेत्र में पेड़ काटने पर प्रतिबंध था। नदियों के तटों पर होटल नहीं बनाए जा सकते थे। निजी आवास बनाने तक पर रोक थी। 

लेकिन उत्तर प्रदेश से अलग होने के साथ ही केंद्र से बेहिसाब धनराशि मिलना शुरू हो गई। इसे ठिकाने लगाने के नजरिए से स्वयंभू ठेकेदार आगे आ गए। उन्होंने नेताओं और नौकरशाहों का एक मजबूत गठजोड़ गढ़ लिया और नये राज्य के रहनुमाओं ने देवभूमि के प्राकृतिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी। दवा कंपनियां औषधीय पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों के दोहन में लग गई हैं। भागीरथी, खीरगंगा और अलंकनदा के तटों पर बहुमंजिला होटल और आवासीय इमारतों की कतार लग गई है। पिछले 25 साल में राज्य सरकार का विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं है। जबकि इस राज्य का निर्माण का मुख्य लक्ष्य था कि पहाड़ से पलायन रुके। रोजगार की तलाश में युवाओं को महानगरों की ओर ताकना न पड़े। लेकिन 2011 में हुई जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके अनुसार पौढ़ी-गढ़वाल और अल्मोड़ा जिलों की तो आबादी ही घट गई है। तय है, क्षेत्र में पलायन और पिछड़ापन बढ़ा है। 

विकास की पहुंच धार्मिंक स्थलों पर ही सीमित रही है, क्योंकि इस विकास का मकसद महज श्रद्धालुओं की आस्था का आर्थिक दोहन रहा था। यही वजह रही कि उत्तराखंड के 5 हजार गांवों तक पहुंचने के लिए सड़कें तक नहीं हैं। खेती आज भी वष्रा पर निर्भर है। उत्पादन बाजार तक पहुंचाने के लिए परिवहन सुविधाएं नदारद हैं। तिस पर भी छोटी-बड़ी प्राकृतिक आपदाएं कहर ढाती रहती हैं। इस प्रकोप ने तो तथाकथित आधुनिक विकास को मिट्टी में मिला कर जल के प्रवाह में बहा दिया है। ऐसी आपदाओं की असली चुनौती इनके गुजर जाने के बाद खड़ी होती है, जो अब जिस भयावह रूप में देखने में आ रही है, उसे संवेदनशील आंखों से देखा जाना भी मुश्किल है।
(लेख में विचार निजी हैं)

प्रमोद भार्गव


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