आम चुनाव : मुद्दा-माहौल की बढ़ती समझ

Last Updated 15 Apr 2024 01:44:42 PM IST

इस बार का चुनाव बिल्कुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिन्दू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को चुनावी मुद्दा बनाए हुए है वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज्यादा बेरोजगारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वादों को पूरा न करना, जो मोदी जी ने 2014 व 2019 में किए थे-ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा।


आम चुनाव : मुद्दा-माहौल की बढ़ती समझ

‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है।
रोचक बात यह है कि 2014 के लोक सभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचारमुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दे पर बात नहीं कर रहे हैं। इसलिए किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी उनके भाषणों में रुचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वादे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि अपना विरोध खुल कर प्रकट नहीं कर रहा। हालांकि यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि प्रति व्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ्त देने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें अनाज मिल रहा है, वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं। पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वादे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोजगार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पांच सदस्यों का भरण-पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की जिंदगी जी रहे होते जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।
 दूसरी तरफ, वे लोग हैं जो मोदी जी के अंधभक्त हैं, और हर हाल में मोदी सरकार को फिर से लाना चाहते हैं। मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी बताना असंभव है कि कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिन्दुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किए, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किए सब पर थोपा जाएगा, जैसा पिछले 10 वर्षो में किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाए, लेकिन हिन्दू धर्म और संस्कृति को स्थायी लाभ नहीं मिलेगा।
भाजपा और संघ, दोनों ही हिन्दू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं पर सनातन हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैकड़ों वर्षो से हिन्दू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य  मानते हैं कि जिस तरह का हिन्दुत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षो में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिन्दू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिन्दू धर्म का हल्ला मचाया गया। हां, उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर विशाल मन्दिरों के निर्माण से हिन्दू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। इसके अलावा जमीन पर ठोस कुछ नहीं हुआ, जिससे सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मिंयों को अधिक दुख है क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है, और सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।
संघ और भाजपा के राजनैतिक हिन्दू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिन्दू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं  पर उदारमना भी हैं क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा-प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षो में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ऐसे ही चला तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेंगे जिससे  भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक से रक्षा कर पाएगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता, हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए संघ का संगठन सक्रिय रहता है, तो सनातनधर्मिंयों को अच्छा ही लगेगा।
जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, तो यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर, दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थीं। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों को विश्वास है कि यह चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं, बल्कि ‘आम जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है, जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमजोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोस कर या चोर बताकर, अपमानित न करे, बल्कि उनके सहयोग से सरकार चलाए क्योंकि राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। चुनावी बॉन्ड के तथ्य उजागर होने के बाद स्पष्ट है कि मोदी सरकार भी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

विनीत नारायण


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